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प्रपा पंडित मुक्सुण बि, रवि ईसरु सबि पी ।। तरुणउ बूढ़उ बालु गावि, अण्णु वि कम्म विसेसु ॥9111 अप्पा संजमु सीलु तउ, मप्पा वंसणु पाणु ।
अप्पा सासय मोक्ख पउ, जाणतउ मप्पाणु 19301 मुनि रामसिंह ने भी प्रात्मा के इसी स्वरूप का वर्णन किया है। कबीर भी यही कहा है-'बरन विवरजित हवै रह्या नां सौ स्याम न सेत ।'3 कबीर मात्मा अविनाशी, अविकार और निराकार है। बनारसीदास ने भी मात्म्म इसी रूप को स्वीकार किया हैअविनासी अविकार परमरस धाम है,
समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम है। सुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त है ।
जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवन्त है। कबीर की दृष्टि में मिथ्यात्व और माया के नष्ट होने पर प्रात्मा ६ परमात्मा में कोई अंतर नहीं रह जाता।
जल में कुम्भ-कुम्भ में जल है, बाहिर भीतर पानी। फूटा कुभ जल जलहि ममाना, यहु जथ की गियानी ।। ज्यूबिंव हिं प्रतिबिम्ब समाना उदक कुम्भ बिगराना।
कहै कबीर जानि भ्रम भागा, धहि जीव समाना ।। बनारसीदास ने भी प्रात्मा-परमात्म रूप का ऐसा ही चित्रण किया है
पिय मोरे घट, मै पियमाहिं । जलतरंग ज्यों द्विविधा नाहि ॥ पिय मो करता मैं करतूति । पिय ज्ञानी मैं ज्ञान विभूति ॥ । पिय सुखसागर मैं सुख सींव । पिय शिवमंदिर में शिवनीय ।।
1. परमार्थप्रकाश, प्र. महा :
पाहुड दोहा, 2.5-31. कवीर ग्रंथावली, पृ. 243. कहै कबीर सबै सज विनस्या, रहे राम प्रविनासी रे । निज सरूप निरंजन निराकार, अपरंपार अपार । अलख निरंजन लखै न कोई निरर्भ निराकार है सोइ । कबीर पंथावर पृ. 210. 227, 230.
नाटक समयसार, पृ. 5. 6. कबीर ग्रन्थावली, परचा को भग, पृ. 111.