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earfust an uौर अकथ्य कहा है।' खानतराय ने 'अनहद' शब्द को भी सुना है ।" समरसता मध्यकाल की एक सामान्य विशेषता है अवश्य पर उसे नाथ सम्प्रदाय की देन नहीं कहीं जा सकती। उसे तो समान स्वर से सभी योगियों ने स्वीकारा है। हेमचन्द्राचार्य ने कहा है कि योगी समरसी होकर परमानन्द का अनुभव करता है। योगीन्दु ने भी इसी ब्रह्म क्य की बात कही है। * रामसिंह ने इस समरसता के बाद किसी भी पूजा या समाधि की प्रावश्यकता नहीं बताई है 15
इस प्रकार मध्यकाल में हिन्दी जैन-जैनेतर कवियों ने साधना का प्रवलम्बन अपने साध्य की प्राप्ति के लिए लिया है। की अनुभूति के बाद साधक समरसता के रंग में रंग जाता है। यह अन्यतम उद्देश्य है ।
3. भावमूलक रहस्य भावना
1. अनुभव :
प्राध्यात्मिक साधना किंवा रहस्य को प्राप्ति के लिए स्वानुभूति एक मपरिहार्य तत्त्व है। इसे जैन-जैनेतर साधकों ने समान रूप से स्वीकार किया है। तर्क प्रतिष्ठानात् " जैसे वाक्यों से एक तथ्य सामने आता है कि प्रात्मानुभूति में तर्क और वादविवाद का कोई स्थान नहीं है । 'न चक्षुसा गृह्यते नापि वाचा," और 'यतो वाचा निवर्तन्ते श्रप्राप्त मनसा सहं भी यही मत व्यक्त करते हैं। जैसा हम पीछे लिख चुके हैं, जैनधर्म में भेदविज्ञान, स्वपर विवेक, तत्त्वज्ञान, आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान, प्रात्म-साक्षात्कार प्रादि से उत्पन्न होने वाले अनुभव को चिदानन्द चैतन्य रस.
18
1.
2. हिन्दी पद संग्रह, 119.
3.
बनासीविलास, ज्ञानवावनी, 34 पु. 84.
4.
योग और सहज ब्रह्मत्व या निरंजन रहस्य भावना का
एवं क्रमशोऽभ्यासवशाद् ध्यानं भजेत्रिरालम्बम |
समरसभावं पातः परमानन्दं ततोऽनुभवेत् ॥ योगशास्त्र, 12. 5; तुलनार्थ देखिये, ज्ञानार्णव, 30-5.
मणु मिलियउ परमेसरहं, परमेसरउ वि मरणस्सु ।
वेहिवि समरस हवाहं, पुज्ज चढावडं कस्स || परमात्मप्रकाश, 1. 123, q. 125.
पाड़ दोहा, 176, पृ. 34. वेदान्तसूत्र 1. 1. 1
5.
6.
7. मुण्डकोपनिषद्, 3. 1. 8 8. तैसरीयोपनिषद्, 1.9.