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सो
ज्ञान को फाग भाग वश भाव लाख करो चतुराई । गुरु दीनदयाल कृपा करि दौलत तोहि बताई । नही चित्त से विसराई, ज्ञानी ||4|| 2
7. पंच कल्यारक
विवाह, फागु भोर होलियो के साथ ही जैन साधकों ने अपने इष्टदेव के पंच कल्याणकों का भी काव्यमय प्राध्यात्मिक वर्णन किया है । परम्पराम्रों को starrer मे गूंथ देना उनकी विशेषता है। देवी-देवताओं द्वारा भगवान के मातापिता की सेवा सुश्रुषा श्रर्चा-पूजा, उनके गर्भ में आते ही प्रारम्भ कर दी जाती है । जन्म होने पर कुबेर द्वारा निर्मित मायामयी ऐरावत पर बैठकर इन्द्र-इन्द्राणी भगवान के माता-पिता के पास आते हैं और मायामयी बालकको मां के पास लिटाकर भगवान को पांडुक शिला पर ले जाकर एक हजार आठ कलशो से स्नान करते हैं । इसी तरह दीक्षा तप और निर्वाण का वर्णन भी जैन कवियों ने पारम्परिक मान्यताम्रों के साथ काव्यमयी वाणी में किया है । भूधरदास उसे वचनमगोचर मानते हैं -- कहि थर्क लोक लख जीभ न सके बरन (भूधरविलाम, पद 39) और दौलतराम तृप्त होकर मुक्ति राह की ओर बढते है - 'दौलत नाहि लेखे चख तृप्तहि सूभत शिववटवा' (दौलत विलास, पद 39) कविवर बनारसीदास ने शुद्धो योग को मूल नक्षत्र में उत्पन्न 'बेटा' का रूप देकर बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है । उन्होने कहा है कि जिस प्रकार मूल नक्षत्र मे उत्पन्न बालक परिवार के विनाश का कारण होता है उसी प्रकार शुद्धोपयोग के उत्पन्न होने पर ममता, मोह, लोभ, काम, कोष श्रादि सारे विकार भाव ध्वस्त हो जाते हैं ।
'मूलन बेटा जायो रे साधौ, जाने खोज कुटुम्ब सब खायो रे साधो । जन्मत माता ममता खाइ मोह लोक व दोई भाई ||
काम, क्रोध दोई काका खाये, खाई तृषना दाई । पापी पाप परोसी खायो अशुभ करम दोई मामा । मान नगर को राजा खायो, फैल परौ सब गामा ॥ दुरमति दादी खाई दादी, मुख देखत ही मूम्रो । मंगलाचार बाजाये बाजे जब यों बालक हुनो । नाम धरयो बालक को भौंदू, रूप वरन कुछ नाहीं । नाम घरतें पांडे खाये, कहत बनारसी भाई ।
1. वही, पृ. 20.
( बनारसीविलास, पृ 238 )