________________
282
निरंजन भी कहा जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि पंचपरमेष्ठियों में महेन्ल पोर सिद्ध कमशः सगुण पोर निर्गुण ब्रह्म है जिसे कबीर ने स्वीकार किया है। बनारसीदास ने इसी निर्गुण को शुद्ध, बुद्ध, पविनाशी और शिव संज्ञाओं से अभिहित किया है।
कबीर की माया, भ्रम, मिथ्याज्ञान, क्रोध, लोभ, मोह, वासना, प्रासक्ति प्रादि मनोविकार मन के परिधान हैं जिन्होंने त्रिलोक को अपने वश में किया है। यह माया ब्रह्म की लीला की शक्ति है । इसी के कारण मनुष्य दिग्भ्रमित होता है । इसलिए इसे ठगोरी, ठगिनी, छलनी. नागनि मादि कहा गया है । कबीर ने व्यावहारिक दृष्टि से माया के तीन भेद माने हैं- मोटी माया, झीनी माया और विद्यारूपिणी । मोटो माया को कर्म कहा गया है। इसके अन्तर्गत बन, सम्पदा, कनक कामिनी आदि पाते हैं। पूजा-पाठ आदि वाह्याडम्बर में उलझना भी ऐसे कर्म हैं जिनसे व्यक्ति परमपद की प्राप्ति नहीं कर पाता । झीनी माया के अन्तर्गत प्राशा, तृष्णा, मान प्रादि मनोविकार पाते हैं। विद्यारूपिणी माया के माध्यम से सन्त साध्य तक पहुंचने का प्रयत्न करते है । यह आत्मा का व्यावहारिक स्वरूप है ।
गैनो का मिथ्यात्व अथवा कर्म कबीर की माया के सिद्धान्त के समानार्थक है । कबीर के समान जैन कवियों ने भी माया को ठगिनी कहा है । कबीर की मोटी माया जेनों का कर्म है जिसके कारण जीव में मोहासक्ति बनी रहती है। जैसा हम देख चुके हैं, जैन कवि भी कबीर के समान बाह्याडम्बर के पक्ष में बिलकुल नहीं हैं । वे तो प्रात्मा के विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए विशुद्ध साधन को ही अपनाने की बात करते है। विद्यारूपिपी माया का सम्बन्ध मुनियों के चारित्र से जोड़ा जा सकता है। कबीर और जैनों की माया में मूलभूत अन्तर यही है कि कबीर माया को ब्रह्म की लीला शक्ति मानते हैं पर जैन उसे एक मनोविकारजन्य कर्म का भेद स्वीकार करते हैं ।
माया अथवा मनोविकारों से मुक्त होना ही मुक्ति को प्राप्त करना है। उसके बिना संसार-सागर से पार नहीं हुमा जा सकता। इसलिए 'मापा पर सब
1. परमात्म प्रकाश, 1-19. 2. बनारसीविलास, शिवपच्चीसी, 1-25. 3. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 166. 4. वही, पृ. 151. 5. वही, पृ. 116. 6. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 145.