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परन्तु मिलन के माध्यम से प्रनिर्वचनीय मानन्द की प्राप्ति के प्रस्फुटन को भूल गये, जिस जायसी ने अपनी जादू भरी कमल से प्राप्त कराया है, वहां पद्मावती रूपी परमात्मा की रस्नसेन रूपी प्रियतम साधक के विरह से प्राकुल-व्याकुल हुई है । जैनों का परमात्मा साधक के लिए इतना तड़फता हुमा दिखाई नहीं देता वह तड़फे भी क्यों ? वह तो वेचारा वीतरागी है । रागी प्रात्मा भले ही तड़पत्ती रहे।
इस प्रकार सूफी पौर जैन रहस्यभावना के तुलनात्मक अध्ययन से यह पता चलता है कि सूकी कधि जैन साधना से बहुत कुछ प्रभावित रहे हैं । उन्होंने अपनी साहित्यिक सक्षमता से इस प्रभाव को भलीभांति अन्तभूत किया है । उनकी कथायें जहां एक तरफ लौकिक दिखाई देती हैं वहा रूपक के माध्यम से वही पारलौकिक दिखती हैं जबकि जैन कवि प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी इस शैली को नहीं अपना सके । उनका विशेष उद्देश्य प्राध्यात्मिक सिद्धान्तों का निरूपण करना रहा । जायसी का मारमा और ब्रह्म ये दोनों पृथक्-पृथक् तत्व हैं जो अन्तर्मुखी वृत्तियों के माध्यम से प्रदत अवस्था में पहुंचते है जब कि गैनों का परमात्मा प्रात्मा को ही विशुद्धतम स्थिति है । वहां दो पृथक्-पृयक् तत्व नहीं इसलिए मिलन या ब्रह्मसाक्षात्कार की समान तीव्रता होते हुए भी दिशा मे अलग-अलग रहीं। 6. निर्गुक रहस्यभावना और अन रहस्यभावना
निर्गुण का तात्पर्य है--पूर्णवीतराग भवस्था । कबीर प्रादि निर्गुणी सन्तों का ब्रह्म इसी प्रकार का निर्गुण और निराकार माना जाता है। कबीर ने निगुण के साथ ही सगुण ब्रह्म का भी वर्णन किया है। इसका अर्थ यह है कि कबीर का ब्रह्म निराकार पोर साकार, द्वैत और पद्धत तथा भावरूप भौर प्रभावरूप है। जैसे जनों के अनेकान्त में दो विरोषी पहलू प्रपेक्षाकृत दृष्टि से निभ सकते हैं, वैसे कबीर के ब्रह्म में भी हैं। कबीर पर जाने-अनजाने एक ऐसी परम्परा का जबरदस्त प्रभाव पड़ा था, जो अपने में पूर्ण थी और स्पष्टत: कबीरदास की सत्यान्वेषक बुद्धि ने उसे स्वीकार किया। उन्होंने अनुभूति के माध्यम से उसे पहिचाना । जैन परम्परा में भी मात्मा के दो रूप मिलते हैं-निकल और सकल । इसे ही हम क्रमशः निर्गण पौर सगुण कह सकते हैं । रामसिंह ने निर्गुण को ही निःसंग कहा है। उसे ही
1. सन्तो, षोखा कांसू कहिये
गुण में निरगुण निरगुण में गुण
बाट छाडि स्यू कहिये ?-कबीर ग्रंथावली, पद 180. 2. जैन शोष मोर समीक्षा-पृ. 62. 3. परमात्मप्रकाश, 1-25. 4. पाहाबोहा, 100.