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3. प्रास्म सम्बोधन
नरभव दुर्लभता, शरीर मादि विषयों पर चिन्तन करने के साथ ही साधक अपने चेतन को मात्म सम्बोधन से सन्मार्ग पर लगाने की प्रेरणा देता है। इससे प्रसदवृत्तियाँ मन्द हो जाती हैं और साध्य की ओर भी एकाग्रता बढ़ जाती है साधक स्वयं मामे पाता है और संसार के पदार्थों की क्षणभंगुरता प्रादि पर सोचता है।
बनारसीदास अपने चेतन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि रे चेतन, तू त्रिकाल में अकेला ही रहने वाला है । परिवार का संयोग तो ऐसा ही है, जैसे नदीनाव का संयोग होता है । जहाँ संयोग होता है वहां वियोग भी निश्चित ही है। यह संसार प्रसार है, भरणभंगुर है । बुलबुले के समान सुख, संपत्ति, शरीर प्रादि सभी कुछ नष्ट होने वाले हैं । तू मोह के कारण उनमें इतना अधिक पासक्त हो गया है कि आत्मा के समूचे गुणो को मूल गया है । 'मैं मैं' के भाव में चतुतियों में भ्रमण करता रहा । अभी भी मिथ्यामत को छोड़ दे और सद्गुरु की वाणी पर श्रद्धा कर ले । तेरा कल्याण हो जायेगा ।। रे चेतन, तू अभी भी मिथ्याभ्रम की घनघोर निद्रा में सोया हुमा है । जबकि कषाय रूप चार चोर तुम्हारे घर को नष्ट किये दे रहे हैं
चेतन तुहु जनि सोवहु नीद अघोर ।
चार चोर घर मूसंहि सरबस तोरो। इसलिए तू राग द्वेष प्रादि छोड़कर और कनक कामिनी से सम्बन्ध त्याग प्रचेतन पदार्थों की सगति में तू सब कुछ मूल गया । तुझे यह तो समझना चाहिए था कि चकमक में कभी भाग निकलती नहीं दिखती। आगे कवि अपनी प्रात्मा को सम्बोधते हुए कहते हैं
___ "तू मातम गुन जानि रे जावि, साधु वचन मनि प्रानि रे पानि । भरत चक्रवर्ती, रावरण प्रादि पौराणिक महापुरुषों का उदाहरण देकर वे और भी अधिक स्पष्ट करते हैं कि अन्त समय पाने पर "पौर न तोहि छुड़ावन हार।"3
1. चेतन तू तिहूकाल अकेला,
नदी नाव संजोग मिल ज्यों, त्यों कुटुम्ब का मेला । चेतन ॥1॥ यह संसार प्रसार रूप सब, ज्यों पटमेखन खेला। सुख संपत्ति शरीर जलबुद बुद, विनशत नाहीं बेला ॥ कहत 'बनारसि' मिथ्यामत तज, होय सुगुरु का चेला । तास वचन परती न पान जिय, होइ सहज सुरझला । चेतन ।।3।।
बनारसी विलास, मध्यातमपद पंक्ति, 2. 2. बनारसी विलास, प्रध्यातमपद पंक्ति, 9-20. 3. बही, मध्यातम पद पंक्ति, 8.