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यह संसारी जीवात्मा पर पदार्थों में अधिक रुचि दिखाता है और स्वयं अपने गुणों को भूल जाता है-चेतन उल्टी चाल चले ।
जड़ संगत तें जड़ता व्यापी निज गुन सकल टले । यह चेतन बार-बार मोह में फंस जाता है इसलिए वे उसे अपने आप को सम्भालने को कहते हैं-
चेतन तोहिन नेक संसार,
नख शिख लों दृढ़ बन्धन बैठे कौन निखार 11
इसीलिए बनारसीदास संसारी जीव को 'भौंदू' कहकर सम्बोधित करते हैं । उनके इस शब्द में कितनी यथार्थ अभिव्यक्ति हुई है यह देखते ही बनता है। उनका कथन हैं-रे भोंदू, ये जो चर्म चक्षु हैं जिनसे तुम पदार्थों का दर्शन करते हो, वस्तुतः ये तुम्हारी नहीं है । उनकी उत्पत्ति भ्रम से होती है और जहां भ्रम होता है वहां श्रम होता है। जहां श्रम होता है वहां राग होता है। जहां राग होता है वहां मोहादिक भाव होते हैं, जहां मोहादिक भाव होते हैं वहां मुक्ति प्राप्ति सम्भव है । रे भौ, ये चर्म चक्षुएं तो पौद्गलिक हैं, पर तूं तो पुद्गल नही । ये भावें पराधीन हैं । fear प्रकाश के वे पदार्थ को देख नहीं सकती । अतः ऐसी प्राखें प्राप्त करने का प्रयत्न करो जो किसी पर निर्भर न रहें
भौ भाई ! समुझ शब्द यह मेरा,
जो तू देखे इन प्रखिनसौ तामें कछु न तेरा, भौदू० ॥ ॥ पराधीन बल इन प्राखिन को विनु प्रकाश न सूर्भ ।
सो परकाश प्रगति रवि शशि को, तू अपनों कर बूझे, भोंदू ॥15॥ ३ वास्तविक प्राखें तो 'हिये की ग्राखें हैं। रे भोंदू, तुम उन्हीं हिये की प्राखों
से देखो जिनसे किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न नहीं होता। उनसे प्रमृत रस की वर्षा
मांखों से परमार्थ
होती है । वे केवल ज्ञानी की वाणी को परख सकती हैं । उन देखा जाता है जिससे प्राणी कृतार्थ हो जाता है। यही केवली की व्यवस्था है जहां कर्मों का लेष नहीं रहता । उन प्रांखों के मिलते ही अलख निरंजन जाग जाता है, मुनि ध्यान धारणा करता है। संसार के अन्य सभी कार्य मिथ्या लगने लगते हैं, विषय विकार नष्ट होकर शिव-सुख प्राप्त होता है, समता रस प्रकट होता है, निर्विकल्पावस्था में जीव रमण करने लगता है । बनारसीदास कहते हैं-"वा दिन
1. वही, मध्यातम पद पंक्ति, 12.
2. बनारसी विलास, प्रध्यातम पद पंक्ति, 18, पृ. 234-35.
3.
भोंदू भाई देखि हिये की मांखें,
जे कर अपनी सुख सम्पत्ति भ्रम की सम्पत्ति नायें, भोंदू भाई । वही, 19 g. 235.