________________
रामकुमार वर्मा ने भी हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल को दो खण्डों में विभाजित किया- संधिकाल (सं. 750-1200) एवं चारणकाल (1000-1375सं.)। इसमें जैन साहित्य को समाहित करने का प्रयल हमा है। उन्होंने उसे दो वर्गों में विभक्त किया है। साहित्यिक अपभ्रश रचनाएं, और (2) अपभ्रश परवर्ती लोक भाषा या प्रारम्भिक हिन्दी रचनाए। प्रथम वर्ग में स्वयंभूदेव, देवसेन, पुष्पदंत, धनपाल, मुनि रामसिंह, अभयदेव मूरि, चन्द्रमुनि, कनकामर मुनि, नयनन्दि, जिनदत सूरि, योगचन्द्र, हेमचन्द्र, हरिभद्रसूरि, सोमप्रभ सूरि, मेरुतुग मादि कवियों की रचनाएं पाती हैं और द्वितीय वर्ग में शालिभद्र सूरि, जिनपद्म सूरि, विनयचन्द्र सूरि, धर्मसूरि, विजयसेन सूरि, अम्बदेव सूरि, राजशेखर सरि, प्रादि कवियों की रचनायों को स्थान दिया गया है । इन कवियों का काल 8 वीं शदी से 14 वीं शवी तक प्राता है । डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी हिन्दी साहित्य के मादिकाल' में जैन, सिद्ध एवं नाय साहित्य को स्थान देना उचित नहीं समझा। फिर भी उन्होंने हिन्दी को अपभ्रंश साहित्य से अभिन्न माना है । हिन्दी साहित्य के वैज्ञानिक इतिहास में इस संदर्भ में कुछ प्रयास अवश्य हुआ है पर उसमे भी कुछ उत्तम कोटि की रचनाए रह गई हैं । अगर चन्द नाहटा ने "प्राचीन काव्यों की रूप परंपरा में प्रादिकालीन हिन्दी जैन साहित्य की परवर्ती रचनाओं को समाहित का करने प्रयत्न किया है । इधर इस काल की विविध विधाओं पर स्वतन्त्र रूप से भी काफी काम हुआ है। गोविन्द रजनीश, नरेन्द्र भानावत, महेन्द्र सागर प्रचण्डिया, पुरुषोत्तम मेनारिया, शम्भूनाथ पाण्डेय, भोलाशंकर व्यास, वासुदेव सिंह, पुरुषोत्तम प्रसाद प्रासोया, रामगोपाल शर्मा 'दिनेश' परमानन्द शास्त्री, गणपतिचन्द्र गुप्त, डॉ. हरीश प्रादि विद्वानों के कार्य इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं । गणपति चन्द्र गुप्त ने "मादिकाल की प्रामाणिक रचनाएं" पुस्तक में इस काल के हिन्दी जैन साहित्य को अच्छे ढंग से समायोजित किया है।
__यहां हम इन सभी विद्वानों द्वारा उल्लिखित रचनामों के आधार पर हिन्दी की प्रादिकालीन जैन कृतियों पर संक्षिप्त प्रकाश डाल रहे हैं । इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि स्वयंभू, पुष्पदन्त प्रादि अपभ्रंश कवियों के ग्रंथों को भी हमने इस काल में समेटा है । यह इसलिए कि इस काल में लोकभाषा के प्रचलित तत्व इन ग्रन्थों में यत्र-तत्र उभर पाये हैं। इसी काल के द्वितीय भाग में ये तस्व माधुनिक हिन्दी के काफी नजदीक आते दिखाई देते हैं । कुछ विद्वानों ने इसे अवहट्ट का रूप कहा है और कुछ ने देशी भाषा का। हम इसे प्रादिकालीन ही कहना उपयुक्त समझते हैं। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यद्यपि अपभ्रंश और हिन्दी को पृथक-पृथक् माना जाता है और माना जाना चाहिये । पर कि हिन्दी की संरचना में अपनश काल में प्रचलित देशी भाषा के तत्वों ने विशेष योगदान दिया है वो
1. हिन्दी साहित्य, पृ. 15,