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शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन, रामकुमार वर्मा, भोलाशंकर व्यास, नामवरसिंह, शिवप्रसादसिंह, रामचन्द तोमर, हीरालाल जैन भादि विद्वानों ने अपभ्रंश का अध्ययन किया और उसे पुरानी हिन्दी अथवा देशी भाषा कहकर सम्बोधित किया । सरहपा, कण्ह प्रादि बोद्ध संतों के स्वयंभू, पुष्पदंत आदि जौन विद्वानों और चन्द्रवरदाई तथा विद्यापति जैसे वैदिक कवियो ने भी इसको इसी रूप में देखा । अपभ्रंश और अवहट्ट ने हिन्दी के विकास में अनूठा योगदान दिया है । इसलिए हमने अपभ्रंश और अवहट्ट को हिन्दी के प्रादिकाल का प्रथमभाग तथा पुरानी हिन्दी को प्रादिकाल का द्वितीय भाग माना है ।
अपने कालान्तर में साहित्यिक रूप ले लिया और भाषा के विकास की गति के हिसाब से वह मागे बढ़ी जिसको प्रवहट्ट कहा गया। इसी को हम पुरानी हिन्दी कहना चाहेंगे । विद्वानों ने इसकी कालसीमा 11 वीं शती से 14 वीं शती तक रखी है। अब्दुल रहमान का संदेसरासक, शालिभद्र सूरि का बाहुबली रास, जिनपद्म सूरि का थूलिभट् फागु प्रादि रचनाएं इसी काल में आती हैं ।
इस काल की अवहट्ट किंवा पुरानी हिन्दी में सरलीकरण की प्रवृत्ति अधिक बढ़ गई । विभक्तियों का लोप-सा होने लगा । परसगों का प्रयोग बढ़ गया । ध्वनि परिवर्तन और रूप परिवर्तन तो इतना अधिक हुआ कि आधुनिक भाषात्रों के शब्दों के समीप तक पहुंचने का मार्ग स्पष्ट दिखाई देने लगा । विदेशी शब्दों का उपयोग बढ़ा । इल्ल, उल्ल प्रादि जैसे प्रत्ययों का प्रयोग अधिक होने लगा । संभवत: इसी - लिए डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपभ्रंश साहित्य को भाषाकी दृष्टि से हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत स्वीकार किया है । "चूंकि भाषा को साहित्य से पृथक् नहीं किया जा सकता इसलिए अपभ्रंश साहित्य भी हिन्दी साहित्य से सम्बद्ध होना चाहिये भले ही वह संक्रान्तिकालीन रहा है।" विद्वानों के इस मत को हम पूर्णतः स्वीकार नहीं कर सकते । हाँ, प्रवृतियों के सन्दर्भ में उसका प्राकलन अवश्य किया जा सकता है ।
जैसा हम पहले लिख चुके हैं, प्रादिकाल का काल निर्धारण और उसकी प्रामाणिक रचनाएं एक विवाद का विषय रहा है। जार्ज ग्रियर्सन से लेकर गणपति चन्द्र गुप्त तक इस विवाद ने अनेक मुद्दे बनाये पर उनका समाधान एक मत से कहीं नहीं हो पाया। जार्ज ग्रियर्सन ने चारणकाल (700-1300 ई.) की संज्ञा देकर उसके जिन नौ कवियों का उल्लेख किया है उनमें चन्दवरदायी को छोड़कर शेष कवियों की रचनायें ही उपलब्ध नहीं होतीं । इसके बाद मिश्रबन्धों ने "मिश्र वन्धु विनोद" के प्रथम संस्करण में इस काल को प्रारम्भिक काल (सं. 700-1444 ) कह कर उसमे 19 कवियों को स्थान दिया है । पर उन पर मन्थन होने के बाद प्रधिकांश कवि प्रामाणिकता की सीमा से बाहर हो जाते हैं । श्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में प्रादिकाल को दो भागों में विभाजित किया- अपभ्रंश और देश भाषा की रचनाएं। इनमें जैन काव्यों को कोई स्थान नहीं दिया गया। डॉ.