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1. सहज-समाधि के रूप में 2. सहज-सुख के रूप में और 3. परमतत्व के रूप में।
पीताम्बर ने सहज समाधि को अगम और प्रकथ्य कहा है । यह समाधि सरल नहीं हैं । वह तो नेत्र और वाणी से भी अगम है जिसे साधक ही जान पाते हैं
"नैनन ते प्रगम अगम याही बैनन ते, उलट 'पुलट बहे कालकूटह कह री। मूल बिन पाए मूढ़ कैसे जोग साधि पावें,
सहज समाधि की प्रगम गति गहरी ॥3402 ___ बनारसीदास ने उसे निर्विकल्प और निरुपाधि का प्रतीक माना । वही प्रात्मा केवलज्ञानी और परमात्मा कहलाता है । इसी को प्रातम समाधि कहा गया है जिसमें राग, द्वेष, मोह विरहित वीतराग अवस्था की कल्पना की गई है
पंडित विवेक लहि एकता की टेक गहि, दुदज अवस्था की अनेकता हरतु है। मति श्रूति अवधि इत्यादि विकलप मेंटि, निरविकलप ग्यान मन में धरतु है ।। इन्द्रियजनित सुख-दुख सौं विमुख है के । परम के रूप है करम निर्जरतु है । सहज समाधि साधि त्यागि परकी उपाधि, प्रातम पराधि परमातम करतु है ॥ रागद्वेष मोह की दसासों भिन्न रहे याते. सर्वथा त्रिकाल कर्भ जाल कों विधुसहै। निरूपाधि प्रातम समाधि मैं विराजे ताने,
कहिए प्रगट पूरन परम हंस है ॥
जैन साधकों ने नाम सुमिरन और अजपा जाप को अपनी सहज साधना का विषय बनाया है । साधारण रूप से परमात्मा और तीर्थकरों का नाम लेना सुमिरन है तथा माला लेकर उनके उनके नाम का जप करना भी सुमिरन है।ग.
1. अपनश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद, पृ. 244. 2. बनारसीविलास, ज्ञानवावनी, 34, पृ. 84. 3. नाटक समयसार, निर्जरा द्वार, पृ. 141. 4. नाटक समयसार, सर्वविशुद्धिवार, 82, पृ. 285.