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पानंदधन पर हठयोग की जिस साधना का किंचित् प्रभाव दिखाई देता है बह उत्तरकालीन अन्य जंनाचार्यों में नहीं मिलता
मातम भनुभव-रसिक कौ, मजब सुन्यौ बिरतंत । निर्वेदी वेदन कर वेदन कर अनन्त ॥ माहारो बालुडो सन्यासी, देह देवल मठवासी । इड़ा-पिंगला मारग तजि जोगी, सुषमना घर बासी ।। ब्रह्मरंध्र मघि सांसन पूरी, बाऊ अनहद नाद बजासी। यम नीयम प्रासन जयकारी, प्राणायाम अभ्यासी ॥ प्रत्याहार धारणाघारी, ध्यान समाधि समासी । मुल उत्तर गुण मुद्राधारी, पर्यंकासन वासी ॥1
धानतराय ने उसे गूगे का गुड़ माना । इस रसायन का पान करने के उपरान्त ही प्रात्मा निरजन और परमानन्द बनता है। उसे हरि-हर-ब्रह्मा भी कहा जाता है। मात्मा और परमात्मा के एकत्व की प्रतीति को ही दौलतराम ने "शिवपुर की डगर समरस सौं भरी, सो विषय विरस रुचि चिरविसरी" कहा है।
मध्यकाल में जिस सहज-साधना के दर्शन होते हैं उससे हिन्दी जैन कवि भी प्रभावित हुए हैं पर उन्होंने उसका उपयोग प्रात्मा के सहज स्वाभाविक और परम विशुद्धावस्था को प्राप्त करने के अर्थ में किया है। बाह्यचार का विरोध भी इसी सन्दर्भ में किया है। जैन साधक अपने ढंग की सहज साधना दारा ब्रह्म पद प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहे हैं। कभी कभी योग की चर्चा उन्होंने अवश्य की पर हठयोग की नहीं । ब्रह्मानुभूति और तज्जन्य आनंद को प्राप्ति का उद्घाटन करने में जैनसाधको की उक्तियां न अधिक जटिल और रहस्यमय बनी और न ही उनके काव्य में अधिक अस्पष्टता आ पाई । जैन काव्य में सहज शब्द मुख्य रूप से तीन रूपों में प्रयुक्त हुमा है
1. मानंदधन बहोत्तरी, पृ. 358. 2. पानत विलास, कलकत्ता. 3. पाणंदा, मानंदतिलक, जयपुर भामेर शास्त्र भंडार की हस्तलिखित प्रति 2, 4. दौलत जैन पव संग्रह, 73 पृ. 40.
भेषधार रहे भैया, भेस ही में भगवान । भेष मे न भगवान, भगवान तो भाव में।। (बनारसीविलास, ज्ञानबावनी, 43 पृ. 87)