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जैन साधकों ने भी सौरा के समान गुरु ( सदगुरु ) की महत्ता को साधना का मार्ग प्रशस्त बनाने के सन्दर्भ में अभिव्यंजित किया है । अन्तर मात्र चिनगारी प्रज्वलित करने की मात्रा का है ।" मीरा प्र ेम माधुर्यभाव का है जिसमें भगवान कृष्ण की उपासना प्रियतम के रूप में की है। इससे अधिक सुन्दर-सुन्दर सम्बन्ध की कल्पना ही भी नहीं सकती । विरह और मिलन की जो धनुभूति घोर अभिव्यक्ति इस माधुर्यभाव में खिली है वह सख्य धौर दास्यभाव में कहां ! इसलिए मीरा के समान ही जैन कवियों ने दाम्पत्यमूलक भाव को ही अपनाया है। मीरा प्रियतम के प्रेमरस में भीगी चुनरिया को प्रोढ़कर साज श्रृंगार करके प्रियतम को ढूढ़ने जाती है उसके विरह में तड़पती है। इस सन्दर्भ में बारहमासे का चित्रण भी किया है सारी सृष्टि मिलन की उत्कण्ठा में साज-सजा रही है परन्तु मीरा को प्रियतम का वियोग खल रहा है । प्राखिर प्रियतम से मिलन होता है । वह तो उसके हृदय में ही बसा हुआ है वह क्यों यहां-वहां भटके। यह दृढ़ विश्वास हो जाता है। उस प्रागम देश का भी मीरा ने मोहक वर्णन किया है ।
जैन साधकों की श्रात्मा भी मीरा के समान अपने प्रियतम के विरह में तड़पती है ।" भूधरदास की राजुल रूप श्रात्मा अपने प्रियतम नेमीश्वर के विरह में मीरा के समान ही तड़पती है। इसी सन्दर्भ में मीरा के समान बारहमासों की भी सर्जना हुई है ।" प्रियतम से मिलन होता है और उस श्रानन्दोपलब्धि की व्यंजना मीरा से कहीं अधिक सरस बन पड़ी है। सूर और तुलसी यद्यपि मूलतः रहस्यवादी कबि नहीं हैं फिर भी उनके कुछ पदों में रहस्यभावनात्मक अनुभूति झलकती है जिनका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं।
इस प्रकार सूफी, निर्गुण और सगुण शाखाधों की रहस्यभावना जैन धर्म की रहस्य भावना से बहुत कुछ मिलती-जुलती है, जो अन्तर भी है, वह दार्शनिक पक्ष की पृष्ठभूमि पर प्राधारित है । साधारणतः मुक्ति के साधक मौर बाधक तत्वों को समान रूप से सभी ने स्वीकार किया है। संसार की प्रसारता और मानव जन्म
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दिन-दिन महोत्सव प्रतिषरणा, श्री संघ भगति सुहाइ ।
मन सुद्धि श्री गुरुसेवी यह, जिरणी सेव्यइ शिव सुख पाइ || जैन ऐतिहासिक काव्य संग्रह - कुशल लाभ - 53 वां पद
मध्यात्म गीत, बनारसी विलास, पू. 159-60
भूषर विलास, 45 वां पद पू. 25.
कवि विनोदीलाल- बारहमासा संग्रह कलकत्ता, 42 वां पद्य, पृ. 24,
लक्ष्मी
बल्लभ नेमि - राजुल बारहमासा, पहला पद्य.
मानन्दवन पद संग्रह, माध्यात्मिक ज्ञान प्रसारक मण्डल बम्बई, चौथा पद,
प्र. 7.