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की दुर्लभता से भी किसी को इन्कार नहीं । प्रपत्तिभावना गर्भित दाम्पत्य मूलक प्रेम की भी सभी कवियों ने हीनाधिक रूप से अपनाया है। परन्तु जैन कवियों का दृष्टिकोण सिद्धान्तों के निरूपण के साथ ही भक्तिभाव को प्रदर्शित करता रहा है। इसलिए जन्तर कवियों की तुलना में उनमें भावुकता के दर्शन उतने अधिक नहीं हो पाते । फिर भी रहस्य भावना के सभी तस्व उनके काव्य में दिखाई देते हैं । तथ्य तो यह है कि दर्शन और अध्यात्म की रहस्य - भावना का जितना सुन्दर समन्वय मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों के काव्य में मिलता है उतना अन्यत्र नहीं । साहित्य क्षेत्र के लिए भी उनकी यह एक अनुपम देन मानी जानी चाहिए । 8. मध्यकालीन जैन रहस्यभावना और प्राधुनिक रहस्यवाद
मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य के अन्तदर्शन से यह स्पष्ट है कि उसमें निहित रहस्यभावना और प्राधुनिक काव्य में अभिव्यक्त रहस्यभावना में साम्य कम और वैषम्य अधिक दिखाई देता है ।
(1) जैन रहस्यभावना शान्ता भक्ति प्रधान है । उसमें वीतरागता, निःसंगता और निराकुलता के भावों पर साधकों की भगवद्भक्ति अवलम्बित रही है । बनारसी दास ने तो नवरसों में शान्त रम को ही प्रधान माना है-नवमो सान्त रसनिको नायक ।" बात सही भी है। जब तक कर्मों का उपशमन नहीं होगा. रहस्यभावना की चरमोत्कर्ष प्रवस्था कैसे प्राप्त की जा सकती है ? शम ही शान्त रस का स्थायीभाव माना गया है । जैन ग्रन्थों का अन्तिम मंगलाचरण प्राय: गान्ति की याचना में ही समाप्त होता है—- देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शान्ति भगवज्जिनेन्द्र: । 2 जैन मंत्र भी शान्तिपरक है । उनमें सात्विक भक्ति निहित है । राग-द्वेषादि विकार भावों से विरक्त होकर चरम शान्ति की याचना गर्भित है । इसलिए शान्त रस को बनारसीदास ने 'प्रात्मिक रस' कहा है। मैया भगवतीदास ने भी जैन मत को शान्तरस का मत माना है । वस्तुतः समूचा जैन साहित्य शान्ति रस से प्राप्लावित है 15
(1) आधुनिक साहित्य मे अभिव्यक्त रहस्यवाद प्रस्तुत रहस्यवाद से भिन्न है । उसमें कर्मोपशमनजन्य शान्ति का कोई स्थान नही । श्राधुनिक रहस्यवाद में प्राचीन जंन रहस्यवाद की अपेक्षा आध्यात्मिकता के दर्शन बहुत कम होते हैं । धार्मिक दृष्टि का लगभग प्रभाव-सा है । उसकी मुख्य प्रेरणा मानवीय र सांस्कृतिक है ।
नाटक समयसार, सर्वविशुद्धि द्वार 10, दशभक्त्यादि संग्रह, पृ. 181, श्लोक 14 वां नाटक समयसार उत्थानिका, 19 वां पद्य शान्त रसवारे कहें, मन को निवारे रहें,
बेई प्रान प्यारे रहें, और सरवारे हैं | ब्रह्मविलास, ईश्वर निर्णय पच्चीसी, 6 वां कवित्त, पृ. 253.
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जैन शोध और समीक्षा- डॉ. प्रेमसागर जैन, जयपुर, पृ. 169-208,
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133, पृ. 307.