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सुद्ध गया" जैसे वाक्यों को ऐकान्तिक दृष्टि की और बीचा 'जाने लगा । निश्चय ar or der के सामान्यस्थ की और ध्यान देकर किसी एक पक्ष की धोर काव अधिक हो गया। इस संदर्भ में गृहास्वयम् स्तोत्र में स्वामी समन्तभद्र का न दुष्टष्य है जहाँ वे कहते हैं कि हे भवन् ! यापकी हमारी पूजा से कोई प्रीजन नहीं है क्योंकि माप वीतराग है और न को निन्दा से कोई प्रयोजन है, क्योंकि आपने denre को समूल नष्ट कर दिया है, फिर भी हम बात पूर्वक जो भी आपके गुणों का स्मरण करते हैं वह इसलिए कि ऐसा करने से पाप aretter और मोह राग द्वेषादि भावों से मलिन मन तत्काल पवित्र हो जाता है। न पूजयायंस्त्वयि वीतरागे, न निवया नाथ विवांतवरे । तथापि ते पुण्य गुरण स्मृतिनः पुनाति वित्तं दुरिता जनेभ्यः ॥
इस युग में मुनि योगेन्दु का भी योगदान उल्लेखनीय है । इनका समय यद्यपि facierस्पद है फिर भी हम उसे लगभग 8 वी 9 वीं शताब्दी तक निश्चित कर सकते हैं । इनके दो महत्वपूर्ण ग्रंथ निर्विवाद रूप से हमारे सामने हैं-- (1) परमात्मसार ीर ( 2 ) योगसार। इन ग्रंथो में कवि ने निरंजन यदि कुछ ऐसे शब्द दिये है जो उत्तरकालीन रहस्यवाद के अभिव्यंजक कहे जा सकते हैं। इन ग्रन्थो में अनुभूति का प्राधान्य है इसलिए कहा गया है कि परमेश्वर से मन का मिलन होने पर पूजा आदि क्रियाकर्म निरर्थक हो जाते हैं, क्योंकि दोनों एकाकार होकर समरस हो जाते है ।
मणु मिलियउ परमेसरहं, परमेसर विमरणस्य ।
बीहिवि समरसि हवाहं पुज्ज चडाउ कस्स | योगसार, 12
3. उत्तरकाल
उत्तरकाल मे रहस्यवाद की श्राचारगत शाखा में समयानुकूल परिवर्तन हुआ । इस समय तक जैन संस्कृति पर वैदिक साधकों, राजाओ और मुसलमान भाक्रमणकारियो द्वारा घनघोर विपदाओं के बादल छा गये थे। उनसे बचने के fire भाचार्य जिनसे ने मनुस्मृति के प्राचार को जैनीकृत कर दिया, जिसका विरोध दसवी शताब्दी के प्राचार्य सोमदेव ने अपने यशस्तिलकचम्पू में मन्दस्वर में ही किया। इससे लगता है, तत्कालीन समाज उस व्यवस्था को स्वीकार कर चुकी थी । जंन रहस्मवाद की यह एक मोर सीढ़ी थी, जिसने उसे वैदिक संस्कृति के नजदीक ला दिया ।
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freeन भर सोमदेव के बाद रहस्यवादी कवियों में मुनि रामसिंह का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। उनका 'पाहुड़ दोहा' रहस्यवाद की परिभाषाओं से भरा पड़ा है । शिव-शक्ति का मिलन होने पर भई समाव की स्थिति मा जाती है और मोह विलीन हो जाता है ।