________________
है और पुण्य-पाप के भेदक तत्त्व से सुपरिचित रहता है। एक स्थान पर तो या भगवती दास ने अनुभव का अर्थ सम्यग्ज्ञान किया है और स्पष्ट किया है कि कुछ थोड़े ही भव (जन्म-मरण) शेष रहने पर उसकी प्राप्ति होती है। जो उसे प्राप्त नहीं कर पाता वह संसार में परिभ्रमण करता रहता है । कविवर भूधरदास पात्मानुभव की प्राप्ति के लिए भागमाभ्यास पर अधिक बल देते हैं । उसे उन्होंने एक पूर्व कला तथा भवदापहारी घनसार की सलाक माना है। जीवन की मल्पस्थिति और फिर द्वादशांग को अगाधता हमारे कलाप्रेमी को चिन्तित कर देती है। इसे दूर करने का उपाय उनकी दृष्टि में एक ही है-श्रुताभ्यास । यही श्रुताभ्यास पात्मा का परम चिन्तक है । कविधर द्यानतराय भी भववाधा से दूर रहने का सर्वोत्तम उपाय प्रात्मानुभव मानते हैं । यात्मानुभव करने वाला साधक पुद्गल को विनाशीक मानता है । उसका समता-सुख स्वयं मे प्रगट रहता है। उसे किसी भी प्रकार की दुविधा अथवा भ्रम शेष नहीं रहता। भेदविज्ञान के माध्यम से वह स्व-पर का निर्णय कर लेता है । दीपचन्द कवि भी प्रात्मानुभूति को मोक्ष प्राप्ति का ऐसा साधन मानते हैं जिसमे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र की प्राराधना की जाती है । फलतः अलण्ड और मचल ज्ञान-ज्योति प्रकाशित होती है । डा. राधाकृष्णन ने भी इसी को रहस्यवाद कहा है । पर उन्होने विचारात्मक अनुभूति को दर्शन का क्षेत्र तो बना दिया पर उसका भावात्मक अनुभूति से कोई सम्बन्ध स्वीकार नहीं किया । अतः यहां हम उनके विचारो से सहमत नहीं हो सकेंगे। अनुभूति में भाव यद्यपि प्रधान और मूल अवश्य है पर उनका निकट सम्बन्ध विचार अथवा दर्शन से भी बना रहता है। बिना विचार और दर्शन के भावों में सघनता नही पा सकती।
(3) मात्मतत्व आध्यात्मिक साधना का केन्द्र है । संसरण का मूल कारण है-पात्म तत्त्व पर सम्यक् विचार का प्रभाव । प्रात्मा का मूल स्वरूप क्या है ? और वह मोहादि विकारों से किस प्रकार जन्मान्तरों में भटकता है ? इत्यादि से प्रश्नों का यहां समाधान खोजने का प्रयत्न किया जाता है।
1. वही, पुण्य पापजगमूल पच्चीसी, पृ. 18 2. वही, परमात्म शतक, पृ. 29 3. जैन शतक, पृ.91 4. अध्यात्म पदावलि, पृ. 359 5. ज्ञानदर्पण, 4, 45, 128-130 आदि 6. Heart of Hindustan (भारत को अन्तरास्मा) अनुवादक-विश्वम्भरनाथ
त्रिपाठी, 1953, पृ. 65