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बनारसीदास ने भी इसी परम्परा को स्वीकार किया है । उसी निरंजन की उन्होंने वदना की है। वही परमगुरु और अपमंजक है। भगवान का यही निर्गुण स्वरूप यथार्थ स्वरूप है । तुलसी का ब्रह्म भी मूलत: निर्गुणपरक ही है । इसी को निष्फल ब्रह्म भी कहा जाता है । अल्लाह, करीम, रहीम प्रादि सूफी नामों के प्रति रिक्त पात्मा गुरु, हंस, राम प्रादि शब्दों का भी प्रयोग निर्गुणी सन्तों ने ब्रह्म के अर्थ में किया है । जैनाचार्यों ने भी इनमें से अधिकांश शब्दों को स्वीकार किया है । यह जिनसहस्रनाम से स्पष्ट है । सगुण परम्परा का भी उन्होंने प्राधार लिया है। ब्रह्मत्व निरूपण में यहां एकत्ववाद की प्रतिष्ठा की गई है जिसमें अध्यात्म का सरस निर्मल जल सिंचित हुमा है । साकार विग्रह के वर्णन में ब्रह्म के विराट स्वरूप का दर्शन होता है। प्रदतता और अखण्डता का भी प्रतिपादन किया गया है । इसी को अनिर्वचनीय और अगोचर भी कहा गया है। ये सभी तत्त्व सगुण-निर्गुण भक्त कवियों के साहित्य में हीनाधिक भाव से मिलते हैं । जैन कवियों की भक्ति भी सगुणा और निर्गुणा रही है । अतः उनका आत्मा और ब्रह्म भी उपर्युक्त विशेषणों से मुक्त नहीं हो सका।
निसानी कहा बताउ रे तेरो वचन अगोचर रूप । रूपी कह तो कछु नाही रे, कैसे बघ प्ररूप ।। रूपा रूपी जो कहूँ प्यारे, ऐसे न सिद्ध अनूप । सिद्ध सरूपी जो कहूं प्यारे, बन्धन मोक्ष विचार ॥ सिद्ध सनातन जो कह रे, उपजे विणसे कोण । उपज विरास जो कहू प्यारे, नित्य प्रवाधित गौन ॥
1. परम निरम्जन परमगुरु परमपुरुष परधान ।
बन्दहं परम समाधिगत, अपमंजन भगवान ॥ बनारसीविलास, कर्मछत्तीसी,
पछ 1, पृ. 136. 2. प्रानन्दधन बहोत्तरी, पृ. 365.
तुलनार्थ देखिए बाबा पात्म भगोचर कैसा तातै कहि समुझावों ऐसा । जो दीस सो तो है वो नाहीं, है सो कहा न जाई। मैना बैना कहि समझामो, मूगे का गुड़ भाई। दुष्टि न दीस मुष्टि न माव, विनस नाहि नियारा । ऐसा ग्यान कथा गुरु मेरे, पण्डित करो विचारा ।। कबीर, पृ. 126.