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'रहस्य' शब्द 'रहस्' पर आधारित है । 'रहस्' शब्द 'रह' त्पागार्थक धातु से असुन् प्रत्यय लगाने पर बनता है। तदनंतर यत् प्रत्यय जोड़ने पर रहस्य शब्द निर्मित होता है । उसका विग्रह होगा-रहसि भवम् रहस्यम् । अर्थात् रहस्य एक ऐसी मानसिक प्रतीति अथवा अनुभूति है, जिसमें साधक शेय वस्तु के अतिरिक्त ज्ञेवान्तर वस्तुओं की वासना से प्रसंपृक्त हो जाता है। __'रहस्' शब्द का द्वितीय अर्थ विविक्त, विजन, छन्न, निःशलाक, रह, उपांशु मोर एकान्त है। और विजन में होने वाले को रहस्य कहते है। (रहसिभवम् रहस्यम्) । गुह्य अर्थ में भी रहस्य शब्द का प्रयोग हुमा है। श्रीमद्भगवद् गीता और उपनिषदों में रहस्य शब्द का विशेष प्रयोग दिखाई देता है । वहां एकान्त अर्थ में 'योगी यु जीत सततमात्मानं रहसि स्थितम्', मर्म अर्थ मे 'भक्तो सि सखा चेति रहस्यम् हवेतदमुत्त' और गुहार्थ में 'गुह्ययाद् गुह्यतरं' (18. 63), 'परम गुह्य' (18. 38) आदि की अभिव्यक्ति हुई है। इस रहस्य को प्राध्यात्मिक क्षेत्र में अनुभूति के रूप में और काव्यात्मक क्षेत्र में रस के रूप में प्रस्फुटित किया गया है। रहस्य के उक्त दोनो क्षेत्रो के मर्मज्ञों ने स्वानुभूति को 'चिदानन्द चैतन्य' अथवा 'ब्रह्मानंद सहोदर' नाम समर्पित किया है । रस-निस्पति के सन्दर्भ में ध्वन्यालोक, काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण आदि प्राचीन काव्य ग्रन्थों में इसका गम्भीर विवेचन किया गया है।
जहां तक जैन साहित्य का प्रश्न है, उसमें रहस्य' शब्द का प्रयोग अन्तराय कर्म के अर्थ मे हुमा है । धवलाकार मे इसी अर्थ को 'रहस्य मंतरायः', (1/1, 1, 1/44) कहकर स्पष्ट किया है । 'रहस्य' शब्द का यह अर्थ कहां से प्राया है, यह गुत्थि अभी तक सुलझ नहीं सकी । सम्भव है अन्तराय कर्म की विशेषता के सन्दर्भ में 'रहस्य' शब्द को अन्तराय कर्म का पर्यायार्षक मान लिया गया हो । जो भी हो, इस अर्थ को उत्तरकालीन प्राचार्यों ने विशेष महत्व नहीं दिया अन्यथा उसका प्रयोग लोकप्रिय हो जाता । दूसरी ओर जैनाचार्यों ने रहस्य शब्द के इर्दगिर्द घूमने वाले प्रर्थ को अधिक समेटा है । गुह्य साधना के अर्थ में उन्होंने रहस्य शब्द का प्रयोग भले ही प्रथमतः न किया हो पर उसमें संनिहित प्राध्यात्मिक वस्तुनिष्ठता को
1. सबंधातुभ्योऽसुन् (उणादिसूत्र-चतुर्थपाद)। 2. तत्र भवः दिगादिभ्यो यत् (पाणिनि सूत्र, 4. ३. 53. 54)। 3. विविक्त विजनः छन्ननिःशलाकास्तथा रहः । __ रहस्योपांशु चालिडे रहस्यम् तद्भवे त्रिषु ॥ अमरकोश 2. 8. 22-23.
मभिधान चिन्तामणि कोश, 741, 4. गुझे रहस्यम्............अभिषान चिन्तामणिकोश, 742.