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कृता इमां धन मालदा, घंधा कर जंजालदा।
हिरदा हुमा व्यंमालदा, कासी गया तो क्या हुमा ।" बाक्रियामों के करने से जीव रागादिक वासनामों में लिप्त रहता है और अपना मात्म कल्याण नहीं कर पाता इसलिए ऐसे बाह्याडम्बरों का निषेध जैन साधकों और कवियों ने जैनेतर सन्तों के समान ही किया है । दौलतराम ने देह माश्रित बाह्यक्रियामों को मोक्ष प्राप्ति की विफलता का कारण माना है इसलिए वे कहते हैं
मापा नहिं जाना तूने कैसा शानधारी रे । देहाश्रित करि क्रिया भापको मानत शिव-मग-धारी रे । निज-निवेद विन घोर परीसह, विफल कही जिन सारी रे।।
मन को चंचलता रहस्यभावना की साधना का केन्द्र मन है। उसकी मति चूंकि तीव्रतम होती है इसलिए उसे वश में करना साधक के लिए अत्यावश्यक हो जाता है । मन का शैथिल्य साधना को डगमगाने में पर्याप्त होता है। शायद यही कारण है कि हर साधना में मन को वश में करने की बात कही है । जैन योग साधना भी इसमें पीछे नहीं रही।
संसारी मन का यह कुछ स्वभाव-सा है कि जिस और उसे जाने के लिए रोका जाता है उसी और वह दौड़ता है । यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है । पं. रूपचन्द्र का अनुभव है कि उनका मन सदैव विपरीत रीति चलता है । जिन सांसारिक पदार्थों से उसने कष्ट पाया है उन्ही मे प्रीति करता है । पर पदार्थों में मासक्त होकर बनैतिक माचरण भी करता है । कवि उसे वश में नहीं कर पाता और हारकर बैठ जावा है।
कलाकार बनारसीदास ने मन को जहाज का रूपक देकर उसके स्वभाव की मोर अधिक स्पष्ट कर दिया है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति को समुद्र पार करने के लिए एक ही मार्ग रहता है जहाज, उसी तरह भव (समुद्र) से मुक्त होने के लिए सम्यग्ज्ञानी को मन रूपी जहाज का प्राश्रय लेना पड़ता है। वह मन-घटे में स्वयं में विद्यमान रहता है, पर प्रशानी उसे बाहर खोजता है, यह माश्चर्य का विषय है। कर्मरूपी समुद्र में राग-द्वेषादि विभाव का पल है, उसमें विषय की वरमें उठती रहती हैं, तृष्णा की प्रबल बड़वाग्नि और ममता का शब्द फैला रहता है। भ्रमरूपी मंबर है जिसमें मन रूपी जहाज पबन के जोर से चारों दिशाओं में पककर लगाता, 1. हिन्दी जैन भक्ति काव्य मोर कबि, पृ. 3324 2. अध्यात्म पदावली, पृ. 3421 3. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 491