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का विशेष उल्लेख किया जा सकता है जिसमें भक्त कवियों ने अपने सरस भावों को सुनगुनाती भाषा में उतारने का सफल प्रयत्न किया है।
बारहमासा भी मध्यकाल की एक विधा रही है जिसमें कवि अपने बडास्पद देव या प्राचार्य के बारहमासों की दिनचर्या का विधिवत् प्रात्याने करता है। ऐसी रचनात्रों में हीरानन्द सूरि का स्थूलि भर बारहमासी और नेमिनाथ बारहमासा (15वीं शती) डूंगर का नेमिनाथ फांग के नाम से बारहमासा (सं. 1535) ब्रह्मबूनराज का नेमीश्वर बारहमासा (सं. 1581), रत्नकीति का नेमि बारहमासा (सं. 1614), जिनहर्ष का नेमिराजमति बारहमासा (सं. 1713), बल्लभ का नेमिराजुल बारहमासा (सं. 1727), विनोदीलाल अग्रवाल का नेमिराजुल बारहमासा (सं. 1749) सिद्धिविलास का फागुणमास वर्णन (सं. 1763), भवानीदास के अध्यात्म बारहमास (सं. 1781), सुमति-कुमति-कुमति बारहमास, विनयचन्द्र का नेमिनाथ बारहमास (18वीं शती) आदि रचनाएँ विशेष प्रसिद्ध हैं । ये रचनाएँ अध्यात्म और भक्तिपरक है । इसी तरह की और भी शताधिक रचनाएँ हैं जो रहस्य साधना की पावन सरिता को प्रवाहित कर रही हैं । स्वतन्त्र रूप से बारहमासा 16वीं शती के उत्तरार्ध से अधिक मिलते हैं ।
विवाहलो भी एक विधा रही है जिसमें साधक कवि ने अपने भक्तिभाव को पिरोया है । इस सन्दर्भ में जिनप्रभसूरि (14वीं शती) का अंतरंग विवाह, हीरानंदसूरि (15वीं शती) के अठारहनाता विवाहलो और जम्बूस्वामी विवाहलो, ब्रह्माविनयदेव सूरि (सं. 1615) का नेमिनाथ विवाहलो, महिमसुन्दर (सं. 1665) का नेमिनाथ विवाहलो, सहजकीति का शांतिनाथ विवाहलस (सं. 1678), विजय रत्नसूरि का पार्श्वनाथ विवाहलो (सं. 8वीं शती) जैसी रचनाएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। इन काव्यों में चरित नायकों के विवाह प्रसंगों का वर्णन तो है ही पर कुछ कवियों ने व्रतों के ग्रहण को नारी का रूपक देकर उसका विवाह किसी संयमी व्यक्ति से रवाया है। इस तरह द्रव्य और भाव दोनों विवाह के रूप यहां मिलते हैं । ऐसे काव्यों में उदयनंदि सूरि विवाहला, कीतिरत्न सूरि, गुणरत्न सूरि सुमतिसाधु सूरि पौर हेम विमल सूरि विवाहले हैं।
बह्म जिनदास (15वीं शती) ने अपने रूपक काव्य परमहंस रास' में शुद्ध स्वभाबी मात्मा का चित्रण किया है। यह परमहंस मात्मा माया रूप रमणी के पाकर्षण से मोह प्रसित हो जाता है। चेतना माहिती के कारा समझाये जाने पर भी वह मायाजाल से बाहर नहीं निकल पाता। उसका मात्र बहिरात्मा जीव काया नगरी में बच रहता है । माया से मान-पुत्र पैदा होता है । मन की निवृत्ति व प्रवृत्ति रूप दो पलियों से क्रमशः विवेक और मोह नामक पुत्रों की उत्पत्ति होती है । ये सभी परमहंस (बहिरात्मा) को कारागार में बन्द कर देते है और विकृत्ति तथा बिबेक को पर