SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 278 स्पष्ट है कि वाम्पत्यभाव में प्रेम की जो प्रकर्षता देखी जा सकती है वह दास्य भाव मथवा सस्य भाव में सम्भव कहां । इसके बावजूद उनमें किसी न किसी तरह साध्य की प्राप्ति में उनकी भक्ति सक्षम हुई है और उन्होंने परम ब्रह्म की अनिर्वचनीयता का अनुभव किया है। 5. सुफी भोर जैन रहस्यभावमा मध्याकालीन सूफी हिन्दी जन साहित्य के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि सूफी कवियों ने भारतीय साहित्य और दर्शन से जो कुछ ग्रहण किया है उसमें जैन दर्शन की भी पर्याप्त मात्रा रही है। जायसी ब्रह्म को सर्वव्यापक, शाश्वत, मलख और प्ररूपी 1 मानते हैं। जैनदर्शन में भी मात्मा को प्ररस, अरूपी और चेतना गुण से युक्त मानते हैं । सूफियों ने मूलतः प्रात्मा के दो भेद किये हैंनफस और रूह । नफस संसार में भटकनेवाला मात्मा है और रूह विवेक सम्पन्न है। जैन दर्शन में भी प्रात्मा के दो स्वरूपों का चित्रण किया गया है-पारमार्थिक पोर व्यावहारिक । पारमार्थिक दृष्टि मे प्रात्मा गाश्वत है और व्यावहारिक दृष्टि से वह ससार में भटकता रहता है । सूफी दर्शन में रूह को विवेक सम्पन्न माना गया है । जेनों ने प्रात्मा का गुण अनन्तज्ञान-दर्शन रूप माना है । सूफी दर्शन में रूह (उच्चतर) के तीन भेद माने गये हैं-कल्व (दिल), रूह (जान), सिर्र (अन्तःकरण) । जैनों ने भी प्रात्मा के तीन भेद माने हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा सफियों के मात्मा का सिर रूप जैनों का अन्तरात्मा कहा जा सकता है। यही से परमात्मा पद की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। संसार की सृष्टि का हर कोना सूफी दर्शन के अनुसार ब्रह्म का ही प्रश है । पर जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि की सरचना में परमात्मा का कोई हाथ नहीं रहता। जैन दर्शन का प्रात्मा ही विशुद्ध होकर परमात्मा बनता है अर्थातू उसको आत्मा मे ही परमात्मा का वास रहता है पर प्रज्ञान के भावरण के कारण वह प्रकट नहीं हो पाता । जायसी ने भी गुरु रूपी परमात्मा को अपने हृदय में पाया है। जायसी का ब्रह्म सारे संसार में व्याप्त है मौर उसी के रूप से सारा संसार ज्योतिर्मान है। गैनो का भात्मा भी सर्वव्यापक 1. जायसी ग्रन्थावली, पृ. 3. समयसार, 49%; नाटक समयसार, उत्थानिका, 36-47. 3. हिय के जोति दीप वह सूझा-जायसी ग्रन्थावली, पृ. 51. 4. जायसी प्रथावली, पृ. 156. 5. गुरु मोरे मोरे हिय दिये तुरंगम ठाट, वही, पृ. 105. 6. नयन जो देखा कंवलभा, निरमल नीर सरीर । हंसत जो देखा हंस भा, दसन जोति नग हीर ।। वही, पृ. 25. .
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy