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________________ 279 है और उसके विशुद्ध स्वरूप में संसार का हर पदार्य दर्पणवत् प्रतिभाषित होता जायसी ने ब्रह्म के साथ प्रर्वतावस्था पाने में माया (अलाउद्दीन) और सैतान (राघवदूत) को बाषक तत्व माने हैं। बासनात्मक मासिक्त ही माया है। शंतान प्रेम-साधना की परीक्षा लेने वाला तत्व है । पद्मावत में नागमती को दुनियां अंधा, मलाउद्दीन को माया एवं राघव चेतन को शैतान के रूप में इसीलिए चित्रित किया गया है । जायसी ने लिखा है-मैंने जब तक प्रास्मा स्वरूपी गुरु को नहीं पहिचाना, तब तक करोड़ों पर्दे बीच में थे, किन्तु ज्ञानोदय हो जाने पर माया के सब प्रावरण नष्ट हो गये, प्रात्मा और जीवगत भेद नष्ट हो गया। जीव जब अपने पात्मभाव को पहिचान लेता है तो फिर यह अनुभव हो जाता है कि तन, मन, जीवन सब कुछ वही एक प्रात्मदेव है । लोग अहंकार के वशीभूत होकर दंत भाव में फंसे रहते हैं, किन्तु ज्यों ही अहंकार नष्ट हो जाता है । अद्वैत स्थिति मा जाती है। माया की अपरिमित शक्ति है । उसने रतनसेन जैसे सिद्ध साधक को पदच्युत कर दिया । अलाउद्दीन रूपी माया सदेव स्त्रियों मे प्रासक्त रहती है। छल-कपट भी उसकी अन्यतम विशेषता है । दश द्वार में स्थित प्रात्मतत्व को अन्तर्मुखी दृष्टि से ही देखा जा सकता है पर माया इस प्रात्मदर्शन में बाधा डालती है। माया को इसीलिए ठग, बटमार प्रादि जैसी उपमायें भी दी गई हैं। संसार मिथ्या-माया का प्रतीक है । यह सब प्रसार है । जैन दर्शन में माया-मोह अथवा कर्म को साध्य प्राप्ति में सर्वाधिक बाधक कारण माना गया है । इसमें प्रासक्त व्यक्ति ऐन्द्रिक सुख को ही यथार्थ सुख मानता है । यहां माया शैतान जैसे पृथक् दो तत्व नहीं माने गये । सारा संसार माया और मिथ्यात्व जन्य ही है । मिथ्यात्व के कारण ही इस क्षणिक संसार को जीव अपना मानता है । जायसी ने जिसे अन्तरपट अथवा अन्तरदर्शन कहा है, जैन धर्म उसे मात्मज्ञान प्रथवा भेदविज्ञान कहता है। जब तक भेदविज्ञान नहीं होता तब तक मिथ्यात्व, माया. कर्म अथवा अहंकार आदि दूर नहीं होते। जायसी के समान यहां जीव और प्रात्मा दो पृथक् तत्व नहीं है। जीव ही प्रात्मा है । उसे माया मी 1. अपचनसार, प्रथम अधिकार, बनारसी विलास, ज्ञानवावनी, 4. 2. जायसी ग्रन्थमाला, पृ. :01. 3. जब लगि गुरु हो महा न चीन्हा । कोटि अन्तरपद बीचहि दीन्हा ।। जब चीन्हा तब और कोई । तन मन जिउ जीवन सब सोई॥ 'हो हो' करत पोख इतराही । जब भी सिद्ध कहां परवाहीं ।। वही, पृ. 105, जायसी का पद्मावत काव्य पौर दर्शन, पृ. 219-26. 4. नाटक समयसार, जीवद्वार, 23.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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