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दर्शन है और राग-द्वेष, मोहादि विभाव भात्म परणतियां है । शिव, ब्रह्म मौर सिद्ध को एक माना है । ब्रह्म और ब्रह्मा मे भी एकरूपता स्थापित की है । जैसे ब्रह्मा के चार मुख होते है, वैसे ब्रह्म के भी चार मुख होते है-मांख, नाक, रसना और श्रवण । हृदय रूपी कमल पर बैठकर यह विविध परिणाम करता रहता है पर प्रातमराम ब्रह्म कर्म का कर्ता नही । वह निर्विकार होता है। अनन्तगुणी होता है। प्रात्मा और परमात्मा में कोई विशेष अन्तर नहीं । अन्तर मात्र इतना है कि मोह मेल दृढ़ लगि रह्यो तातै सूझ नाहिं । शुद्धारमा को ही परमेश्वर परमगुरु परमज्योति, जगदीश और परम कहा है ।
6.मात्मा और पुद्गल पुद्गल रूप कर्मों के कारण प्रात्मा (चेतन) की मूल ज्ञानादिक शक्तियां धूमिल हो जाती है और फलतः उसे संसार मे जन्म मरण करना पड़ता है । यह उसका व्यावहारिक स्वरूप है । स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द प्रकाश धूप, चांदनी, छाया, पंधकार, शरीर, भाषा, मन श्वासोच्छवास तथा काम, क्रोध, मान-माया, लोभ मादि जो भी इन्द्रिय और मनोगोचर हैं वे सभी पौद्गलिक है । देह भी पौद्गलिक है । मन मे इस प्रकार का विचार साधक को भेदविज्ञान हो जाने पर मालूम पड़ने लगता है और वही बहिरात्मा, अन्तरात्मा बन जाता है। अन्तरात्मा सांसारिक भोगों को तुच्छ समझने लगता है और अपनी अन्तरात्मा को विशुद्धावस्था प्राप्त कराने का प्रयत्न करता है।
अन्तरात्मा विचारता है कि प्रात्मा और पुद्गल वस्तुतः भिन्न-भिन्न है पर परस्पर सम्बन्ध बने रहने के कारण व्यवहारतः उन्हें एक कह दिया जाता है । मात्मा और कर्मों का सम्बन्ध अनादिकाल से रहा है। उनका यह सम्बन्ध उसी प्रकार से है जिस प्रकार तिल का खलि और तेल के साथ रहता है। जिस प्रकार
1. ब्रह्मविलास, मिथ्यात्व विध्वस न चतुर्दशी, जयमाल, पृ. 104. 2. वही, सिद्ध चतुदर्शी, 1-4 पृ. 134; सुबुद्धि चौबीसी 7-9 पृ. 159,
फुटकर कविता; पृ. 273. वही, ब्रह्माब्रह्म निर्णय चतुदर्शी, पृ. 171, फुटकर कविता, 1, पृ.
272-73. 4. वही, जिनधर्मपचीसिका, 13 पृ. 214. 5. वही, परमात्मा छत्तीसी, १ पृ. 228. 6. वही, ईश्वरनिर्णयपचीसी, 1 पृ. 252; परमात्मशतक, पृ. 278-29 1.