________________
ts 1
दूसरा निराकार । श्रहन्त के चार घातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं और शेष चार
तया कर्मों के नष्ट होने तक संसार में सशरीर रहना पड़ता है । पर मन्त आठ कर्मों का नाश कर चुकते हैं और सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेते हैं। उन्हीं को . सगुण और निर्गुण ब्रह्म भी कहा गया है। हिन्दी के जैन कवियों ने दोनों की बड़े भक्तिभाव से स्तुति की है। उन्होंने सिद्ध को ही ब्रह्म कहा है । दर्शन से उन्हें चारों ओर फैला बसन्त देखने मिला है ।
❤
हीरानन्द मुकीम ने ग्रात्मा विशुद्ध स्वरूप को अलख प्रगोचर बताया तथा धात्मतत्व के अनुपम रूप को प्राप्त करने का उपदेश दिया । इसका पूर्ण परिचय पाये बिना जप तप श्रादि सब कुछ व्यर्थ है उसी तरह जैसे करणों के बिना
षों का फटकना निरर्थक रहता है । धान्य विरहित खेत में बाढ़ी लगाने का अर्थ ही क्या है ? प्रात्मा विशुद्ध स्वरूप निर्विकार, निश्छल, निकल, निर्मल, ज्योतिर्ज्ञान गम्य और शायक है ।" वह 'देवनि को देव सो तो बसै निज देह मांझ, ताकी भूल सेवत प्रदेव देव मानिक' के कारण संसार भ्रमण करता है ।"
5. श्रात्मा-परमात्मा
जैसा कि हम विगत पृष्ठों में कह चुके हैं कि प्रात्मा की विशुद्धतम अवस्था परमात्मा कहलाती है। इस पर भैया भगवतीदास ने चेतन कर्म चरित्र में जीव के समूचे तत्त्वों के रूप में विशद प्रकाश डाला है। एक अन्य स्थान पर भी कवि ने शुद्ध चेतन के स्वरूप पर विचार किया है । वह एक ही ब्रह्म है जिसके प्रसंख्य प्रदेश है, अनन्त गुरण है, चेतन है, अनन्त दर्शन-ज्ञान, सुख-वीर्यवान है, सिद्ध है, भजरअमर है, निविकार है । इसी को परमात्मा कहा गया है ।" उसका स्वभाव ज्ञान
1.
निराकार चेतना कहावे दरसन गुन साकार चेतना सुद्धज्ञान गुन सार है । नाटक समयसार, मोक्षद्वार, 10.
बनारसीदास, नाममाला, ईश के नाम, ब्रह्मविलास, सिद्धचतुर्दशी, 1-3 खानतपद संग्रह 58, बनारसीविलास, मध्यात्मफागु, पृ. 154. अध्यात्मवावनी, गुर्जर कविप्रो, प्रथम भाग, पृ. 466-67.
5.
पांडे रूपचन्द, परमार्थी दोहाशतक, जैत हितैषी, भाग 6, अंक 5-6. 6. मनरामविलास, 15 ठोलियों के दि. जैन मंदिर, वैष्नट नं. 395 में संकलित हस्तलिखित प्रति मनमोदन पंचशती, 42. पृ. 20.
7. एकहि ब्रह्म असंख्य प्रदेश | गुरण घनंत चेतनता मेश ||
2.
3.
4.
शक्ति अनंत लर्स जिस माहि जासम और दूसरी नाहि ||21| परका परस रंच नहि जहां शुद्ध सरूप कहावं तहां ॥ afaarit after अविकार । सो परमातम है निरधार ||6|| ---ब्रह्मविलास, परमात्मा की जयमाल; पू. 104,