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अन्तरात्मा है । इसी को सम्यक् दृष्टि कहा गया है । बनारसीदास ने इन्हीं को कर्ममा प्रथम, मध्यम प्रोर पंडित कहा है । जिनवाणी पर श्रद्धा करने वाला, भ्रमसंशय को करने वाला, समकितवान प्रसंयमी, जघन्य अथवा अधम, अन्तरात्मा है। वैरागी त्यागी, इन्द्रियदंभी, स्वपरविवेकी और देशसंयमी जीव मध्यम अन्तरात्मा है तमा सातवें से लेकर बारहवें गुरणस्थान तक की श्रेणी को धारण करने वाले सुद्धोपयोगी मात्मध्यानी निस्परिग्रही जीव उत्तम अथवा पंडित अन्तरात्मा है। जी सयोग गुणस्थान पर चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त करता है वह परमात्मा है । इसके दो भेद है--सकल (सशरीरी) और निकल (अशरीरी) । इन्हीं को क्रमशः पर्हन्त पोर सिद्ध कहा गया है।
त्रिविधिसकल तनुथर गत पातमा, बहिरातमा धुरि भेद । बोजो प्रतर-प्रातम, तिसरो परमातम प्रविछेद ।। प्रातम बुद्धि कायादिक ग्रयो, बहिरातम अधरूप । कायादिक नो सांखीघर रहयो, तर प्रातम रूप ।। ज्ञानानंद हो पूरण पावनो वरजित सकल उपाध । प्रतिन्द्रिय गुणगणमणि प्रागरु इम परमातम साध ॥ बहिरातम तजि प्रतर मातम रूप धई थिर भाव ।
परमातम हो पातमभावक प्रातम परपण दाव ॥2 पास्मा एक स्थिति पर पहुचकर सगुण मौर बाद में निर्गुण रूप हो जाता है । कविवर बनारसीदास ने उसकी इन दोनों अवस्थामो का वर्णन किया है। प्राचार्य योगीन्दु ने इन्ही को क्रमशः सकल और निकल की संज्ञा दी है। सकल का अर्थ है महन्त और निकल का पर्थ है सिद्ध । एक साकार है और
1. बनारसीविलास अवस्थाष्टक, पृ. 185%; छहढाला-दौलतराम 3-4-6%3B
मध्यात्म पंचासिका दोहा-द्यानतराय, हस्तलिखित ग्रन्थों का पन्द्रहवां
वार्षिक विवरण (खोज विवरण) सन् 1932-34, नागरी प्रचारिणी
सभा, वाराणसी. 2. अपभ्रंश और हिन्दी में रहस्यवाद, पृ. 108; ब्रह्मविलास-(भैया भगवती
दास), परमात्मछत्तीसी, 2-5 पृ. 227; धर्मविलास-द्यानतराय, अध्यात्म पंचासिका, पृ. 192. "निगुण रूप निरंजन देवा, सगुण स्वरूप करें विधिसेवा' । बनारसीविलास,
शिवपच्चीसी, 7, पृ. 150. 4. परमात्मप्रकाश, 1-25, पृ. 32.