________________
149
उठ जाती है, प्रज्ञान भाव रूप राक्षसकुल उसमें जल जाते हैं, निकांक्षित रूप योद्धा लड़ते हैं, रागद्वेष रूप सेनापति जूझते हैं, संशय का गढ़ चकनाचूर हो जाता है, भवविभ्रम का कुम्भकरण विलखने लगता है मन का दरयाव पुलकित हो उठता है, महिरावण थक जाता है। समभाव का सेतु बंध जाता है, दुराशा की मंदोदरी मूर्छित हो जाती है, चरण (चरित्र) का हनुमान जाग्रत हो जाता है, चतुर्गति की सेना घट जाती है, छयक गुण के बाण झूटने लगते है, आत्मशक्ति के चक्र सुदर्शन को देखकर दीन विभीषण का उदय हो जाता है और रावण का सिरहीन जीवित कबंध मही पर फिरने लगता है। इस प्रकार सहजमाव का संग्राम होता है और अन्तरात्मा शुद्ध बन जाता है । बनारसीदास ने भन्त मे यह निष्कर्ष दिया कि रामायण व्यवहार दृष्टि है और राम निश्चय दृष्टि । ये दोनों सम्यक श्रुतज्ञान के अवयव है
विराज रामायण घट माहिं ।। मरमी होय मरम सो जाने, मूरख माने नाहि, ॥ विराज रामायण ॥ टेक पातम 'राम' ज्ञान गुन लछमन 'सीता' सुमति समेत । शभपयोग 'वानरदल' मंडित, वर विवेक 'रणखेत' ॥2॥ ध्यान धनुष टंकार शौर सुनि, गई विषयदिति भाग । भई भस्म मिथ्यामत लका, उठी धारणा प्राग ॥3॥ जरे अज्ञान भाव राक्षसकुल लरे निकांछित सूर । जूझे रागद्वेष सेनापति संसै गढ चकचूर ॥4॥ वलखत 'कुभकरण' भवविभ्रम, पुलकित मनदरयाव । थकित उदार वीर 'महिरावण' सेतुबंध समभाव ॥5॥ मूछित ‘मंदोदरी' दुराशा, सजग चरन 'हनुमान' । घटी चतुर्गति परणति 'सेना' छुटे छपकगुण 'बान' ॥6॥ निरखि सकतिगुन चक्रसुदर्शन उदय विभीषण दीन । फिर कबंध महीरावरण की प्रारणभाव शिरहीम ।। इह विधि सकल साघु घट अंतर, होय सहज संग्राम ।
यह विवहारदृष्टि 'रामायण' केवल निश्चय 'राम' विराजे रामायण ।।। चेतन लक्षण रूप प्रात्मा की तीन भवस्थायें होती हैं-बहिरात्मा अन्तरात्मा पौर परमात्मा । जो शरीर और प्रात्मा को प्रभिन्न मानते हैं वह बहिरात्मा है । उसी को मिथ्यावृष्टि भी कहा गया है । वह विधिनिषेध से अनभिज्ञ होता है और विषयों में लीन रहता है । जो भेद विज्ञान से शरीर और मात्मा को भिन्न-भिन्न मानता है वह
1. बनारसीविलास, अध्यात्मपद पंक्ति, 16, पृ. 233.