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से "कलिकाल कुठार लिये फिरतां तनु नम्र है चोर झिली न झिली" रूप में कहा ।। और भूधरदास ने उसे "कालकुठार लिए सिर ठाड़ा क्या समझे मन फूला रे" रूप से सम्बोधित किया। कबीर ने शरीर को कागज का पुतला कहा जो सहज में ही घुल जाता है
मन रे तन कागद का पुतला। लाग बूद बिनसि जाइ छिन में, गरब कर क्या इतना । माटी खोदहिं भींत उसार, मंध कहै घर मेरा । प्राव तलव बाधि ले चाल, बहुरि न करिहै फेरा। खोट कपट करि यहु धन जोयो, लै धरती में गाड्यो । रोक्यो घटि सांस नही निकस, ठौर-ठौर सब छाड्यो । कहै कबीर नट नाटिक थाके, मदला कौन बजावै। गये पषनियां उझरी बाजी, को कार के प्रावै ॥
इसी तथ्य को भगवतीदास ने 'घटे तेरी प्राव कछे त्राहि को उपावरे' कहकर मभिव्यक्त किया है । कबीर ने संसार को 'कागद की पुड़िया' भी कहा है जो बूद पड़े धूल जाती है। माता, पिता, परिवार जन सभी स्वार्थ के साथी हैं जो शरीर के नष्ट होने पर उसे जलाकर वापिस पा जाते हैं।
1. क्षणभंगुर जीवन की कलियाँ कल प्रात को जान खिली न खिलीं।
मलयाचल की शुचि शीतल मन्द सुगन्ध समीर मिली न मिली। कलि काल कुठार लिए फिरता तनु नम्र है चोट झिली न झिली।
करि ले हरि नाम परी रसना फिर अंत समे पै हिली न हिली ॥ 2. भगवंत भजन क्यो भूला रे ॥
यह ससार रैन का सुपना, तन धनवारि-बबूला रे ॥ इस जीवन का कौन भरोसा, पावक में तृण फूला रे । स्वारथ साधं पांच पांव तू, परमारथ को भूला रे। कह कैसे सुख पैहे प्राणी काम करै दुखमूला रे ॥ मोह पिशाच छल्यो मति मारै निजकर कंध वसूला रे। भज श्री राजमतीवर 'भूधर' दो दुरमति सिर धूला रे ॥ हिन्दी पद संग्रह,
पृ. 157. 3. कबीर ग्रंथावली, पदावली भाग, 92 वां पद, पृ. 346. 4. ब्रह्मविलास, अनित्य पचीसिका, 41, पृ. 176. जैन साधकों द्वारा शरीर
चिन्तन को विस्तार से इसी प्रबन्ध के द्वितीय-पंचम परिवर्त में देखिए । 5. कबीर-हॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, पछ 130, पृ. 309.