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कैसा नाता रे ।
कहै
बिर मेरा ।
मन फला-फूला फिर जगत में माता कहे यह पुत्र हमारा वहन भाई कहै यह मुजा हमारी नारी कहै नर मेरा । पेट पकरि के माता रोवे बांह पकरि के भाई । लपटि पटि के तिरिया रोवं हंस अकेला जाई । चार गजी चरगजी मंगाया चढ़ा काठ की घोड़ी । चारों कोने माग लगाया फूंक दियो जस होरी | हाड़ जर जस लाह कड़ी को केस नरं जस घासा ।
सोना ऐसी काया जरि गई कोई न भायो पासा ॥
कविवर द्यानतराय ने भी इन सांसारिक सम्बन्धो को इसी प्रकार मिथ्या और झूठा माना है। मज्ञानी जीव उनको मेरा-मेरा कहकर प्रात्मज्ञान से दूर रहता है ।
मिथ्या यह संसार है रे, झूठा यह संसार है रे ॥ जो देही वह रस सौं पोष, सो नहि संग चलै रे, प्रोरन को तौहि कौन मरोसी, नाहक मोह करं रे ।। सुख की बातें बू नाहीं, दुख को सुख लेखें रे । मूढो मांही माता डोले, साधी ना झूठ कमाता झूठी खाता झूठी श्राप सच्छा सांई सू नाहीं, क्यों कर पार लगे ₹ ॥
डरे रे ।
जपें है
3. मिध्यात्व, मोह और माया :
जम सौं डरता फूला फिरता करता मैं मैं मैरे ।
,
धानत स्यात सोई जाना, जो जप तप ध्यान धरं रं ||
4.
1
जब से दर्शन की उत्पत्ति हुई है तभी से मिथ्यात्व, मोह मोर माया का
शब्द का प्रयोग विशेष रूप से
सबन्ध उसके साथ जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद में 'माया' बेश बदलने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 3 उपनिषद् काल में इसने दर्शन का रूप ग्रहण किया और इसे परमात्मा की सृजन का प्रतीक कहा गया । संसारी प्रात्मा इसी माया से श्राबद्ध बनी रहती है ।" जैनधर्म इसे मिथ्यात्व, मोह प्रौर कर्म कहता
1
सन्त वाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 4
2. हिन्दी पद संग्रह, पद 156, पृ. 130.
3.
इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते, ऋग्वेद 6. 47. 18.
अस्मान्मायी सृजते विश्व मेतत्, तस्मिश्वान्यो मायया संनिरुद्धः श्वेताश्वतरोपनिषद 4. 9.