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बत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि मायो फनिधार। मयो कमठ मठ मुख कर श्याम, नमों मेरु सम पारस स्वाम 123. भवसागर तें जीव अपार, परम पोत में घरे निहार । बत काढ़े दया विचार, वर्षमान बंदी बहुबार ।।24.
पूजा और जयमाल साहित्य में भी कतिपय उदाहरण दृष्टव्य हैं जो रहस्यास्मक तत्त्व की गहनता को समझने में सहायक बनते है । अर्जुनदास, मजयराज पाटनी, धानतराय, विश्वभूषण, पांडे जिनदास प्रादि अनेक कवि हुए हैं जिन्होंने संगीतपरक साहित्य लिखा है । देखिए, कविवर द्यानतराय की सोलहकारण पूजा में कितनी भाव विभोरता है
कवन झारी निर्मल नीर, पूजों जिनवर गुन-गंभीर । परमगुरु हो जय जय माथ परम गुरु हो । दरशविशुद्ध भावना भाव, सोलह तीर्थकर पद पाय ।
परमगुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो॥ इसी प्रकार भगवतीदास ने ब्रह्मविलास में परमात्मा की जयमाला में ब्रह्म रूप परमात्मा का चित्रण किया है
एक हि ब्रह्म असंख्यप्रदेश । गुण अनंत चेतनता भेश । शक्ति मनंत लस जिह माहि । जासम और दूसरा नाहिं ।। दर्शन ज्ञान रूप व्यवहार निश्चय सिद्ध समान निहार ।
नहिं करता नहिं करि है कोय । सदा सर्वदा प्रविचल सोय ।। चाडपई काव्यों में ज्ञामपंचमी, बलिभद, ढोलामारु, कुमतिविध्वंस, विवेक, मलसुन्दरी प्रादि रचनाएं उल्लेखनीय हैं जो भाषा और विषय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । इनके अतिरिक्त मालदेव की पुरन्दर चौ., सुरसुन्दरी चौ., वीरांगद चौ., देवदत्त चौ. मादि, रायमल्ल की चन्द्रगुप्त चौ., साधुकीर्ति की नमिराज चौ., सहजकीति की हरिश्चन्द चौ., नाहर जटमल की प्रेमविलास चौ., टीकम की चतुर्दश चौ., जिनहर्ष की ऋषिदत्ता चौ., यति रामचन्द्र की मूलदेव चौ.. लक्ष्मी बल्लभ की रनहास पपई भी सरसता की दृष्टि से उदाहरणीय हैं।
चूनड़ी काव्य में रूपक तत्त्व अधिक ममित रहता है। इसी के माध्यम से जैन धर्म के प्रमुख तत्वों को प्रस्तुत किया जाता है। विनयचन्द की चूनझे (सं. 1576), साधुकीति की धूनड़ी (सं. 1648), भगवतीदास की मुकति रमणी चूड़ी (सं. 1680), चन्द्रकीर्ति की चारित्र चूनड़ी (सं. 1655) मादि काव्य इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है । विनयचन्द्र की चूनड़ी में पत्नी पति से ऐसी धूनही वाहती है जो उसे भव-समुद्र से पार करा सके