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अत्यन्त स्पष्ट निवण किया है और कहा है कि उसके त्यागे बिना विनासी सुख नहीं मिल सकता। मेरे मोह. ने मेरा सब कुछ बिगाड़ कर रखा है। कर्मरूप मिरिकन्दरा में उसका निवास रहता है । उसमें छिपे हुए ही वह भनेक पाप करता है पर किसी को दिखाई नहीं देता। इन्द्रिय वासना में परमन के अपहरण का भाव दिखाई देता है। बड़ी श्रद्धा के साथ कवि कहता है कि इन सभी विकारों को दूर करने का एक मात्र उपाय जिनवाणी है
मोह मेरे सारे ने विगारे पानजीव सब,
जगत के 'बासी तैसे बासी कर राखे हैं। कर्मगिरिकंदरा में वसत छिपाये प्राप,
करत अनेक पाप जात कसे भाखे हैं। विषेवन और तामे चोर को निवास सदा,
परष न हरवे के भाव अभिलासे हैं । ताप जिनराज जूके बैन फौजदार चढ़े,
पान मान मिले चिन्हें मोक्ष वेश दाखें हैं।
दौलतराम का जीव तो अनादिकाल से ही शिवपथ को भूला है। वह मोह के कारण कभी इन्द्रिय सुखो में रमता है तो कभी मिथ्याज्ञान के चक्कर में पड़ा रहता है। जब प्रविद्या-मिथ्यात्व का पर्दा खुलता है तो वह कह उठता है, रे चेतन, मोहवशात् तूने व्यर्थ में इस शरीर से मनुराग किया । इसी के कारण प्रनादिकाल से तू कर्मों से बंधा हुआ है । यह जड़ है और तू चेतन, फिर भी यह अपनापन कसे ? ये विषयभोग भुजग के समान हैं जिसके डसते ही जीव मृत्यु-मुख में चला जाता है। इनके सेवन करने से तृष्णा रूपी प्यास बंसी ही बढ़ती है जैसे क्षार जल पीने से बढ़ती है। है नर ! सयाने लोगों की शिक्षा को स्वीकार क्यों नहीं करते ? मोह मद पीकर तुमने अपनी सुध भुला दी। कुबोध के कारण कुव्रतों में मग्न हो गये, ज्ञान सुधा का मनुभव नहीं लिया। पर पदार्थों से ममत्व जोड़ा मोर संसार की मसरता को परखा नहीं।
1. ब्रह्मबिलास, स्वप्नबत्तीसी । 2. वही, फुटकर कविता 2 । 3. "जीव तूं अनादि ही ते मूल्यो शिव मेलवा," हि. पद. सं. पृ. 221 । .. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 233 । .. वही, पृ. 2311