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परदेशी मानकर कवि कह उठा- इस परदेशी का क्या विश्वास । यह न सुबह बिना है, न शाम, कहीं भी चल देता है, सभी कुटुम्बियों को और शरीर को छोड़कर दूर देश चला जाता है, कोई उसकी रक्षा करने वाला नहीं । सच तो यह है, किसी से कितनी भी प्रीति करो, यह निश्चित है कि वह एक दिन पृथक् हो जायेगा । इसने बन से प्रीति की पौर धर्म को मूल गया। मोह के कारण अनन्तकाल तक घूमता रहा । राग-द्रव, क्रोध, मान, माया, लोभ, विषयवासना आदि विकारों में मग्न रहा । उनके कारण दुःखों को भी भोगता रहा पर कभी सुख नहीं पाया " इसलिए भगवतीदास बड़े दुःखी होकर कहते हैं- "चेतन परे मोह वश धाय ।" यह चेतन मोह के वश होकर विषय भोगों में रम जाता है । वह कभी धर्म के विषय में सोचता नहीं । समुद्र में चिन्तामणिरत्न फेंककर जैसे मूर्ख पश्चात्ताप करता है वैसे ही यह मोही नरभव पाकर भी धर्म न करने पर फिर अन्त में पश्चात्ताप करेगा ।
मोह के भ्रम से ही अधिकांश कर्म किये जाते हैं। मोह को चेतन और अचेतन में कोई भेद नहीं दिखाई देता । मोह के वश किसने क्या किया है, इसे पुराण कथानों का प्राधार लेकर भगवतीदास ने सूचित किया है । उन कथाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि मोह की परिणति दो हैं- - राग और द्वेष इन दोनों के कारण जीव मिथ्याभ्रम में पड़ जाता है । यह भीव घिनौने शरीर में लीन रहता, नारी के er से देह पर प्राकर्षित होता, लक्ष्मी के कारण बड़े-बड़े महाराजा अपना पर छोड़कर प्रजा के समान लोभ की पूर्ति के लिए डोलता है । भगवतीदास को उन सांसारियों पर बड़ी हंसी प्राती है जो इस छोटी-सी प्रायु में करोड़ों उपाय करते हैं । 5 रे मूढ़ । जिसे तूने घर कहा है वहां डर तो अनेक हैं पर उन सभी को भूलकर विषय-वासना में फंस गया है । जल, चोट, उदर, रोग, शोक लोकलाज, राज श्रादि अनेक डरों से तो तू डरता है पर यमराज को नहीं डरता । तू मोह में इतना for उलझ गया है कि तेरी मति और गति दोनों बिगड़ गई हैं । तू अपने हाथ अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है।" स्वप्न बत्तीसी कवि ने मोह-निद्रा का
1. कहाँ परदेशी को पतवारो,
मनमाने तब चले पंथ को, सांज गिर्न न सकारो ।
सब कुटुम्ब खांड इतही पुनि त्याग चले तन प्यारो ॥11॥ वही, पृ. 10 1
2. वही, परमार्थपद पंक्ति 15, माझा, बघीचन्द मंदिर, जयपुर में सुरक्षित प्रति । 3. वही, 25 1
4. ब्रह्मविलास, मोह भ्रमाष्टक |
5. वही, पुण्यपापजगमूल पच्चीसी, 4, पृ. 1951
6. वहीं, जिन धर्म पचीतिका ।