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कमी तीर्घकरों से प्रार्थना, विक्ती और उलाहने की बात करता है। कभी पश्चात्ताप करता हुमा दिखाई देता है तो कभी सत्संगति के लिए प्रयत्नशील दिखता है। धानतराय को तो यह सारा संसार बिल्कुल मिथ्या दिखाई देता है । वे अनुभव करते हैं कि जिस देह को हमने अपना माना और जिसे हम सभी प्रकार के रसपाकों से पोषते रहे, वह कभी हमारे साथ नहीं चलता, तब अन्य पदार्थों की बात क्या सोचें ? सुख के मूल स्वरूप को तो देखा समझा ही नहीं। व्यर्थ में मोह करता है । प्रात्मतत्त्व को पाये बिना प्रसत्य के माध्यम से जीव द्रव्यार्जन करता, असत्य साधना करता, यमराज से भयभीत होता मैं और मेरा की रट लगाता संसार में घूमता फिरता है । इसलिए संसार की विनाशशीलता को देखते हुए वे संसारी जीवों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं--
मिथ्या यह संसार है रे, झूठा यह संसार है रे ॥ जो देही वह रस सौं पोष, सो नहि संग चले रे, पोरन की तोहि कौन भरोसो, नाहक मोह करे रे ।। सुख की बातें बूझे नाहीं, दुख को सुग्व लेखें रे । मूढ़ी मांही माता डोले, साधौ नाल डरै रे ॥ झूठ कमाता झूठी खाता, झूठी जाप जपे रे । सच्चा सांई सूझे नाहीं, क्यों कर पार लगे रे ।। जम सौं डरता फूला फिरता, करता मैं मैं मेरे ।
द्यानत स्याना सोई जाना, जो जन ध्यान धरे रे ॥1 कबीर दादू नानक प्रादि हिन्दी सन्तों ने भी संसार की प्रसारता और क्षणभंगुरता का द्यानतराय से मिलता जुलता चित्रण किया है । सगुण भक्त कवि भी संसार चिन्तन में पीछे नहीं रहे । उन्होंने भी निर्गुण सन्तों का अनुकरण किया है।
संसारी जीव मिथ्यात्व के कारण ही कर्मों से बंधा रहता है वह माया के फंदे में फंसकर जन्म-मरण की प्रक्रिया लम्बी करता चला जाता है । बानतराय ऐसे मिथ्यात्वी की स्थिति देखकर पूछ उठते हैं कि हे प्रात्मन् यह मिथ्यात्व तुमने 1. हिन्दी पद संग्रह, 156 पृ. 130 2. ऐसा संसार है जैसा सेमरफूल ।
दस दिन के व्यवहार में झूठे रे मन भूल ॥ कबीर साखी संग्रह, पृ. 61 3. यह संसार सेंवल के फूल ज्यों तापर तू जिनि फूलै ॥ दादूवानी भाग-2
पृ. 14 माप घड़ी कोऊ नाहिं राखत घर ते देत निकार ।। संतवाणी संग्रह, भाग-2 पृ. 46 झूठा सुपना यह संसार। दौसत है विनसत नहीं हो बार ॥ हिन्दी पद संग्रह, पृ. 133