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शक्ति सौन्दर्य से युक्त नहीं है। ये तो पूर्ण बीतसगी हैं। बता मकान उनसे कुछ अभीष्ट की कामना कर सकता है और न उसकी कामापूर्ण ही हो सकती है। इसके लिए वो उसे ही सम्यकज्ञान और सम्यकपारित्र का परिणामन करना होगा । मतः यहां अभिव्यक्त भक्ति निष्काम अहेतुक भक्ति है । भावावेश में कुछ कषियों ने अवश्य उनका पतितपावन रूप और उलाहना प्रादि से सम्बद पद लिखे हैं। इन सभी विशेषतामों को हम शताधिक हिन्दी जैन पद और गीतिकाव्यों में देख सकते हैं। उदाहरणार्थ-णमोकारफलगीत, मुक्ताफलगीत, नेमीबरणीत, (भ. सकलकोति, सं. 1443-1499), बारहवतगीत--जीवहागीत-जिगन्दगीत (ब्रह्मजिवदास, सं. 1445 से 1525), नेमीपवरगीत (चतरुमल, सं. 1571), पनकामीत (भ. भीमसेन, सं. 1520), विजयकीतिगीत, टंडारणागीतनेमिनाथ पसंत बाबूबराज, मं. 1591), नेमिनायगीत-मल्लनाथगीत (यशोवर, मं. 1581), मध्ठालिका गीत और पद (शुभचन्द्र), सीमंधर स्वामीगीत (भ. वीरचन्द्र, सं. 1580), बसालविलासगीत (सुमतिकीर्ति, सं. 1626), पंचसहेली-पंथिगीत-उदरगीत (बीहल, सं. 1574), पदसंग्रह (जिनदास पांडे), फुटकर शताधिक गीत (समयसुन्दर, सं. 1641-1700), पूज्यवाहनगीत (कुशललाभ), गीतसाहित्य (ब्रह्मसागर. सं. 1580--1655), कुमुवचन्द्र का मीतसाहित्य सं. 1645-1687), अाराधनागीत वादिचन्द्र (सं 1651), जिनराजसूरिगीत (सहजकीति, सं. 1662), नेमिनाथपद (हेमविजय, सं 1666), नेमिनाथराजुल प्रादि गीत (हर्षकीति, सं. 1683), मुनि अभय चन्द्र का मीन साहित्य (सं 1685-1721), ब्रह्मधर्मरुचि का गीत साहित्य (16 वीं), संयम सागर का गीत साहित्य, (सं. 16वीं शती), कनककीर्ति का गीत साहित्य (16बी शती), जिनका गीत साहित्य (17वी शती), जगतराम की जैन पदावली (सं 1724), किमानसिंह का गीत साहित्य (सं. 1771), भूधरदास का पद संग्रह, भवानीदास का गीत साहित्य (सं. 1791), माणिकचंद का पद साहित्य (सं. 1809) मगलराम का पद साहित्य (सं. 1825), ऐसे हजारों पद हिन्दी जैन कवियों के यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं जिनमें माध्यात्मिकता पौर रहस्यवादिता के तत्व गुजित हो रहे हैं।
यह काव्य विधा व्यष्टि और समष्टि चेतना का समहित किए हुए है। माध्यात्मिक विश्लेषण को ध्यानात्मकता के साथ जोड़कर कवियों ने सुन्दर और सरस भावबोध की सर्जना प्रस्तुत की है। मारमासे परमात्मा तक की मायासमयी दीर्घ यात्रा में पूजा, उपासना, उलाहना, दास्यभक्ति, शरालि, दाम्पत्यभाव, फाग, होली, वात्सल्यभाक, मन की चंचलता, स्नेहाधिक विकारणाको की परिणति, सत्संगति, संसार की प्रसारता, प्रामबोधन, भेनिशान, प्राध्यात्मिक विवाह, वितशुद्धि पादि विषयों पर हिन्दी न कलियों में जिस मामिकाता पोर तपस्पपिता के साथ शब्दों में अपने भाव गूथे हैं वे माव्य की ष्ट से तो स्तमा है ही पर नहत्य साधना के क्षेत्र में भी वे अनुपक्या लिके हुए हैं।