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जाती है । मन द्वारा मन के समझाने पर चरम सत्य की उपलब्धि हो जाती है ।" चंचल चित्त को निश्चल करने पर ही राम-रसायन का पान किया जा सकता है'
यह काचा खेल न होई जन घटतर खेले कोई ।
fan चंबल निश्चल कीजे, तब राम रसायन पीजे ॥ 2
एक अन्यत्र पद में कबीर मन को संबोधित करते हुए कहते हैं है मन ! तू क्यों ar भ्रमण करता फिरता है ? तू विषयानन्दों में संलिप्त है किन्तु फिर भी तुझे सन्तोष नहीं । तृष्णाओं के पीछे बावला बना हुम्रा फिरता है । मनुष्य जहां भी पग बढ़ाता है उसे माया-मोह का बन्धन जकड़ लेता है । म्रात्मा रूपी स्वच्छ स्वर्ण थाली को उसने पापों से कलुषित कर दिया है। ठीक इसी प्रकार की विश्वार- सरणी बनारसीदास ' और बुधजन जैसे जैन साधकों ने भी अभिव्यक्त की है । मैया भगवती दास ने कबीर के समान ही मन की शक्ति को पहिचाना और उसे शब्दों में इस प्रकार गूंथने का प्रयत्न किया
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मन बली न दूसरो, देख्यौ इहि संसार ||
तीन लोक में फिरत ही जातन लागे बार ||8||
मन दासन को दास है, मन भूपन को भूप ॥
मन सब बातनि योग्य है, मन की कथा अनूप ॥ ॥ मन राजा की सेन सब इन्द्रिन उमराव ॥
रात दिना दौरत फिरं, करे अनेक अन्याव ॥10॥ इन्द्रिय से उमराव सिंह, विषय देश विश्चरंत ॥ या तिह मन भूप को, को जीते विन संत ॥ 11 ॥
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 146.
वही, पृ. 146.
काहै रे मन वह दिसि घावं, विषिया संगि संतोष न पावे ।।
जहां जहां कल तहां तहां बंधनो, रतन को थाल कियौ ते रंधनां ।
कबीर ग्रंथावली, पद 87, पृ. 343.
रे मन ! कर सदा सन्तोष,
बढ़त परिग्रह मोह बाढत, अधिक तृषना होति ।
बहुत ईंधन जरत जैसे, प्रगनि ऊंची जोति ॥
बनारसीदास, हिन्दी पद संग्रह पृ. 65.
मेरे मन तिरपत क्यों नहि होय,
अनादिकाल ते विषयनराच्यो, अपना सरबत खोय ।। बुधजन, वही, पृ. 197