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भरत बाहुबलि दोऊ भाई कसा युद्ध करै ।।2।। राम पर लक्ष्मण दोनों भाई कैसा सिय के संग वन मांहि फिरें । सीता महासती पतिव्रता जलती प्रगनि परे ।।3।। पांडव महाबली से योद्धा तिनकी त्रिया को हरे । कृष्ण रुक्मणी के सुत प्रच म्न जनमत देव हरै ।140 को लग कथनी कीजै इनकी लिखता ग्रन्थ भरे ।।
धर्म सहित ये करम कौन सा 'बुधजन' यों उचरे 51 4. मनः
साधना में मन की शक्ति अचिन्त्य है । वह संसार के बन्ध और मोक्ष दोनों का कारण होता है। मन को विषय वासनामों की अोर से हटाकर जब उसे मारमा में ही स्थिर कर लेते हैं तो वह योगयुक्त अवस्था कही जाती है। कठोपनिषद् में इसी को परमगति कहा गया है। ' मन, वचन और काय से युक्त जीव का वीर्य परिणाम रूप प्राणियोग कहलाता है । और यही योग मोक्ष का कारण है । दूइ. लिए योगीन्दु ने उसे पंचेन्द्रियों का स्वामी बताया है और उसे वश में करना
आवश्वक कहा है। गौडपाद ने उसकी शक्ति को पहिचानकर संसार को मन का प्रपंच मात्र कहा है ।' कबीर ने माया और मन के सम्बन्ध को अविच्छिन्न कहकर उसे सर्वत्र दुःख और पीडा का कारण कहा है। माया मन को उसी प्रकार विगाड़ देती है जिस प्रकार काजी दूध को विगाड़ देती है ।। मन से मन की साधना भी की
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 201. 2. यदा विनियतं चित्तं मात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृह सर्वकामेभ्यो योग इत्युच्यते तदा ॥ गीता, 6. 18. कठोपनिषद. 2.3.10. मणसा वाया वा वि जुत्तस्य वीरिय परिणामो ।
जीवस्स विरिय जोगो, जोगोत्ति जिणोहिं रिणट्ठिो , पंच सग्रह, 1.88. 5. चतुर्वगे ग्रही मोक्षो योगस्तस्य च कारणम्-योगशास्त्र, 1. 15.
पंचह णायकु वसिकरहु जेण होती वसि अण्ण । मूल विणट्ठइ तरुवरह अवसइ सुक्कहिं पण्ण ।। परमात्मप्रकाश, 140, पृ. 285.
मनोदृश्यमिद द्वतम् , माण्डूक्य कारिका, 3.31. 8. मन पांचों के वसि परा मन के वस नहि पांच ।
जित देखूतित दो लगि जित भाखू तित पाच ॥ कबीर वाणी, पृ. 67. 9. माया सों मन वीगडया, ज्यों कांजी करि दूध ।
है कोई संसार में मन करि देवे सूध ।।दादू, भाग 1, पृ. 118.