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अब में नाच्यो बहुत गोपाल । कामक्रोध को पहिरि चोलना कण्ठ विषय की माल । महामोह के नूपुर बाजत निदा-शब्द रसाल । भ्रम-मायो मन भयो षखावज चलत असंगत चाल । तृष्णा नाद करति घट भीतर, नाना विधि दे ताल | माया को कटि फेटा बांध्यों लोभ तिलक दियो भाल ।
कोटिक कला काछि दिखराई जल थल सुधि नहि काल । सूरदास की सबै अविद्या दूरि करी नन्दलाल ||
इसीलिए मैया भगवतीदास इन विकारों से दूर रहने की सलाह देते हैं । 2 कर्म भी मिथ्यात्व का कारण है। तुलसी ने उन्हें सुख-दुःख का हेतु माना है- 'काहू न कोऊ सुख दुःखकर दाता । निज कृत कर्म भोग सुख भ्राता ।" तूर भी " जनम जनम बहु करम किए हैं तिनमें ग्राम प्राप बधापे । " कहकर यह बताया है कि उन्हें भोगे बिना कोई भी उनसे मुक्त नहीं हो सकता। भैया भगवतीदास ने " कर्मन के हाथ दे बिकाये जग जीव सबै कर्म जोई करे सोई इनके प्रभात हैं 'लिखकर कर्म की महत्ता को प्रकट किया है। मीरा ने कर्मों की प्रबल शक्ति को इसी प्रकार प्रकट किया है । बुधजन भी इसी प्रकार कर्मों की अनिवार्य शक्ति का व्याख्यान कर उसे पुराणों से उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं-
3.
कर्मन की रेखा न्यारी रे विधिना टारी नाँहि टरं । रावण तीन खण्ड को राजा छिन में नरक पडे ।
छप्पन कोट परिवार कृष्ण के वन में जाय मरे ||||| हनुमान की मात अन्जना वन वन रुदन करें ।
1.
सूरसागर 153, पृ. 8 1
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2. काहे को क्रूर तू क्रोध करे प्रति तोहि रहें दुख संकट घेरे । काहे को मान महाश रखावत, आवत काल छिने छिन तेरे ॥ काहे को संघ तु बधन माया सौ, ये नरकादिक में तुहै गेरे । लोभ महादुख मूल है भैया, तु चेतत क्यों नहि चेत सवेरे ॥ ब्रह्मविलास, पुण्य पचीसिका 11 पृ. 4.
रामचरित मानस, गीता प्र ेस, पृ. 458. सूरसागर, पृ. 173.
4.
5.
थकित होय रथ चक्रहीन ज्यौं विरचि कर्मगुन फंद, वही, पृ. 105 6. ब्रह्मविलास, पुण्य पाप जगमूल पचीसी, 20, पृ. 199
7.
मीरा बाई, पृ. 327.