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को भूला हुमा निद्रा की गोद में पड़ा हुआ है, मोह के झकोरों से नेत्रों के पलक इंक रहे हैं, कर्मोदय से तीव्र पुरकने की आवाज हो रही है, विषय सुख की खोज में भटकना स्वप्न है, ऐसी अज्ञानावस्था में प्रात्मा सदा मम्न होकर मिथ्यात्व में भटकता फिरता है, परन्तु अपने प्रात्मस्वरूप को नहीं देखता. काया चित्रसारी में करम परजंक भारी,
माया की संवारी सेज चादरि कल्पना । सैन कर चेतन प्रचेतना नींद लिये, ___मोह की मरोट यहै लोचन को ढपना ॥ उदै बल जोर यहै श्वासको सबद घोर,
विष-सुख कारज की दौर यहै सपना । ऐसी मूढ दसा मैं मगन रहै तिहुंकाल,
घाब भ्रम जाल मैं न पावै रूप अपना ॥1 मिथ्याज्ञानी तत्त्व को समझ नहीं पाता। उसका ज्ञान वसा ही दबा रहता है जैसा मेघघटा में चन्द्र । वह सद्गुरु का उपदेश नहीं सुनता, तीनो अवस्थामों में निन्द होकर घूमता रहता है । मरिण और कांच में उसे कोई अन्तर नहीं दिखता। सत्य मोर असत्य का उसे कोई भेदज्ञान भी नही है। तथ्य तो यह है कि मणि की परख जौहरी ही कर सकता है । सत्य का ज्ञान ज्ञानी को ही हो सकता है। कलाकार बनारसीदास ने इसी बात को कितने मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है
"रूप की न झांक हिये करम को डांक पिये,
ज्ञान दबि रह यो मिरगांक जैसे धन में । लोचन की ढांक सो न माने सद्गुरु हांक,
डोले मूढ़ रंग सो निशंक निहूंपन में ॥2 मिथ्यात्व के उदय से विषयभोगों की ओर मन दौड़ता है । वे सुहावने लगते है। राग के बिना भोग काले नाम के समान प्रतीत होते हैं। राम से ही समूचे शरीर का संवर्धन होता है और समूचे मिथ्या संसार को सम्यक् मानने लगता है। इसलिए कविवर भूषरदास ने रागी भोर विरागी के बीच मन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है कि यह अन्तर वैसे ही है जैसे बैंगन किसी को पम्य होता है और किसी को वायूवर्षक होता है । मिथ्याज्ञानी स्वयं को चतुर मौर दूसरे को मूढ़ मानता
1. नाटक समयसार, निर्जराद्वार 14, पृ. 138. 2. बनारसीविलास, अध्यात्मपद पंक्ति, 5, पृ. 224. 3. रागीविरागी के विचार में बडोई भेद, जैसे 'भटा पचकाहूं काहू को बयारे
।' न सतक, 18