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है । सांयकाल को प्रातःकाल मानता है, शरीर को ही सब कुछ मानकर प्रधेरे में बना रहता है। कविवर भावुक होकर इसीलिए कह उठते हैं कि रे अज्ञानी, पाप धतूरा मत बो। उसके फल मृत्युवाहक होंगे। किंचिद भौतिक सुख-प्राप्ति की लालसा में तू अपना यह नरजन्म क्यों व्यर्थ खोता है ? इस समय तो धर्म-कल्पवृक्ष का सिंचन करना चाहिए। यदि तुम विष बोते हो तो तुमसे प्रभागा और कौन हो सकता है । संसार में सबसे अधिक दुःखदायक फल इमी वृक्ष के होते हैं प्रतः भोंदु मत बन ।
अज्ञानी पाप धतूरा न बोय।
फल चाखन की वार भरे द्रग, मरहै मूरख रोय ॥ वस्तराम का चेतन भी ऐसा ही भोंदु बन गया । वह सब कुछ भूलकर मिथ्या संसार को यथार्थ मानकर बैठ गया। धर्म क्या है, यह मिथ्याज्ञानी समझ नहीं पाता। अहर्निश विषय भोगों में रमता है और उसी को सुकृत मानता है। देव-कुदेव, साधु-कुसाधु, धर्म-कुधर्म प्रादि में उसे कोई पन्तर नहीं दिखाई देता । मोह की निद्रा में वह अनादिकाल से सो रहा है। राग-द्वेष के साथ मिथ्यात्व के रंग में रच गया है, विषयवासना में फंस गया है। चेतन कर्म चरित्र में भया भगवतीदास ने इसकी बड़ी सुन्दर मीमांसा की है । मिथ्यात्व विध्वंसन चतुर्दशी में उन्होंने मिथ्यात्व को स्पष्ट किया है। मिथ्यात्व के कारण ही अनादिकाल से यह प्रशुद्धता बनी हुई है। मोक्षपथ रुका हुआ है, सकट पर संकट सहे गये हैं। फिर भी चेतन उससे मुक्त नहीं हो रहा । मोह के दूर होने से राग-द्वेष दूर होंगे, कर्म की उपाधि नष्ट होगी और चिदानन्द अपने शुद्ध रूप को प्राप्त कर सकेगा। अन्यथा मिथ्यात्व के कारण ही वह चतुर्गति मे भ्रमण करता रहेगा। जब तक मिथ्यात्व है जब तक भ्रम रहेगा और जब तक भ्रम है तब तक कर्मों से मुक्ति नहीं मिल सकती और न ही सम्यग्ज्ञान हो सकता है।
मिथ्याज्ञान के कारण स्वपरक्वेिक जाग्रत नहीं हो पाता। पूर्वावस्था में तो विषय भोगों में रमण करता है पर जब वृद्धावस्था पाती है तो रुदन करता है। कोषादिक कषायों के वशीभूत होकर निगोद का बन्ध करता है। सारे जीवन भर गांठ की कमाई खाता है, एक कौड़ी की भी नई कमाई नहीं करता । इससे अधिक
1. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 166. 2. वही, पृ. 166. 3. ब्रह्मविलास, शत प्रष्टोतरी, 4. ब्रह्मविलास, मिथ्यात्व विध्वंसन चतुर्दशी, 7-12. 5. ब्रह्मविलास, उपदेशपचीसिका, 20.