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संकोच, तुरग.सी. कमाल मौर, पन्धकार जैसा समय रहता है. और, दूसरे में, बकरकुद-सी उमंग, बकरबन्द जैसी चाल तथा महारबाही प्रकार होगा। तम और उचोद ये दोनों प्रगल को पर्याय हैं पर, मिथ्या शाजाम ममें अपील पैदा नहीं होता इसलिए संसार में भटकते रहते हैं। दोनों हाथे हिलोने. वाली हैं। कोई पर्वत से गिरकर मरता है तो कोई कूप से। मरण दोनों का एक है, रूप विविध भले ही हों। दोनों के माता-पिता क्रमशः वेदनीय मार मोहनीय है। उन्हीं से वे बन्धे हुए हैं। शृंखला एक ही है.चाहे वह लोहे की हो अथवा स्वर्ण की हो। जिसकी चित्त दशा जैसी होगी उसकी दृष्टि वैसी ही होगी। इसलिए शानी संसार चक्र को समाप्त कर देता है पर मिथ्यात्वी उसे और भी बढ़ा लेता है।
पुण्य-पाप दोनों संसार भ्रमण के बीज है। इन्हीं के कारण इन्द्रियों को सुख-दुःख मिलता है । मैया भगवतीदास ने इसलिए इन दोनों को त्यागने का उपदेश दिया है। अजरामर पद प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है। बनारसीदास ने इसे नाटक समयसार के पुण्यपाप एकत्वद्वार में इस तत्त्व पर विशद प्रकाश डाला है। उन्होंने कहा है जैसे किसी चांडालनी के दो पुकहुए, उममें से उसने एक पुत्र ब्राह्मण को दिया और एक अपने घर में रखा ! जो ब्राह्मण को दिपा वह ब्राह्मण कहर लाया और मद्य-मांस भक्षण का त्यागी हुमा । जो घर में रहा वह पाण्डाल कहलाया तथा महा-मांसभक्षी हुमा । उसी प्रकार एक वेदनीय कर्म के पाप और पुण्य भिन्न-भिव नाम वाले दो पुत्र हैं, के दोनों संसार में मटकाते हैं। और दोनों बंधपरम्परा को बढ़ाते हैं । इससे ज्ञानी लोम दोनों को ही अभिलाषा नहीं करते।
जैसे काहू चंडाली जुमल-पुत्र जने शिकि,
एक दीयो रामन के एक घर राख्यो है। बांमन कहापौर विनिमय-मांस त्याकाकीला,
चांडाल कहायोतिकि मजन्मांक वाली है ।। तैसें एक वेदनी करम के जुगल पुर,
एक पाप एक पुत्र नाम भिन्न भाख्यो है। दुई मोहि दौर धूप दोऊ कर्मबन्धक्रम,
यात ग्यानवंत नहि कोउ अभिलाग्यो है। बनारसीदास ने नाटक समय-सार में एक रूपक के माध्यम से,मिथ्यात्व को समझाने का प्रयत्न किया है। शरीररूपी महल में कर्मरूपी भारी पलंग है, माया की शय्या सजी हुई है, संकल्प विकल्प की चादर तनी हुई है। चेतना अपने स्वरूप
1. बनारसी विलास, कर्मछत्तीसी, 1-39. 2. ब्रह्मविलास, अनादि बत्तीसिका, पृ.220. 3. नाटक समयसार, पृ. 96.