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भावना शब्द को प्रधिक उपयुक्त माना है । भावना अनुभूतिपरक होती है और बाद किसी धर्म, सम्प्रदाय अथवा साहित्य से सम्बद्ध होकर बसीमित हो जाता है । इस अन्तर के होते हुए भी रहस्यभावना का सम्बन्ध अन्ततोगत्वा चूंकि किसी साधना विशेष से सम्बद्ध रहता है इसलिए वह भी कालान्तर में मनुवृति के माध्यम से एक बाद बन जाता है। इसलिए 'रहस्यवाद' लोकप्रिय हो गया । अध्यात्मवाद और दर्शन :
जहां तक अध्यात्मवाद और दर्शन के सम्बन्ध का प्रश्न है, वह परस्पराश्रित है | अध्यात्मवाद योग साधना है जो साक्षात्कार करने का एक साधन है और दर्शन उस योग साधना का जौद्धिक' विवचन है । अध्यात्मवाद अनुभूति पर आधारित है जबकि दर्शन ज्ञान पर प्राधारित है । अध्यात्मवाद तत्व ज्ञान प्रधान है और दर्शन उसकी पद्धति और विवेचन करता है। इस प्रकार दर्शन अध्यात्मवाद से भिन्न नहीं हो सकता | अध्यात्मवाद की व्याख्या और विश्लेषरण दर्शन की पृष्ठभूमि में ही सम्भव हो पाता है । दोनो के अन्तर को समझने के लिए हम दर्शन के दो भेद कर सकते हैं - प्राध्यात्मिक रहस्यवाद और दार्शनिक रहस्यवाद । श्रध्यात्मिक रहस्यवाद आाचार प्रधान होता है और दार्शनिक रहस्यबाद ज्ञानप्रधान । भ्रतः माचार और ज्ञान की समन्वयावस्था ही सच्चा अध्यात्मवाद अथवा रहस्यवाद है । इसलिए हमने अपने प्रबन्ध मे जैन प्राचार और ज्ञान मीमांसा के माध्यम से ही रहस्यवाद को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है ।
रहस्यवाद किसी न किसी सिद्धान्त अथवा विचार- पक्ष पर प्राधारित रहता है और उस विचार पक्ष का अटूट सम्बन्ध जीवन-दर्शन से जुड़ा रहता है जो एक नियमित भाचार और दर्शन पर प्रतिष्ठित रहता है। साधक उसी के माध्यम से रहस्य का साक्षात्कार करता है। वही रहस्य जब अभिव्यक्ति के क्षेत्र में भाता है तो दर्शन बन जाता है । काव्य मे अनुभूति की अभिव्यक्ति का प्रयत्न किया जाता है और उस अभिव्यक्ति मे स्वभावतः श्रद्धा-भक्ति का भाषिक्य हो जाता है। धीरेutt urfaश्वास, रूड़ियां, चमत्कार, प्रतीक, मंत्र-तंत्र प्रादि जैसे तत्त्व उससे बढ़ने पर जुड़ने लगते हैं ।
'दूसरी ओर रहस्यभावना की प्रतिष्ठा जब तर्क पर धाधारित हो जाती है तो उसका दार्शनिक पक्ष प्रारम्भ हो जाता है। दर्शन को न तो जीवन से पृथक् किया जा सकता है और न अध्यात्म से । इसी प्रकार काव्य का सम्बन्ध भी दर्शन से बिल्कुल तोड़ा नहीं जा सकता । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रत्येक प्रध्यात्मवादी अथवा रहस्यवादी काव्य के क्षेत्र में पाने पर दार्शनिक साहित्यकार हो जाता है । यहीं उसकी रहस्य भावना की अभिव्यक्ति विविध रूप से होती है । आदि कवि वाल्मीकि भी कालान्तर में दार्शनिक बन गये । वेदों और आगमों के रहस्य का उद्घाटन करने वाले ऋषि महर्षि भी दार्शनिक' बनने से नहीं बच सकें ।