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जाते हैं । मीरा सत्संग पाकर ही हरि चर्चा करना चाहती है ।" सत्संग से वुष्ट भी वैसे ही सुधर जाते हैं जैसे पारस के स्पर्श से कुधातु लोहा भी स्वर्ण बन जाता है । " इसलिए सूर दुष्ट जनों की संगति से दूर रहने के लिए प्रेरित करते हैं ।'
मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने भी है । बनारसीदास ने तुलसी के समान सत्संगति
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सत्संग का ऐसा ही महत्व दिखाया लाभ गिनाये हैं
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कुमति निकद होय महा मोह मंद होय,
जगमगे सुयश विवेक जगं हियसो । नीति को दिव्य होय विनैको बढाव होय,
उपजे उछाह ज्यों प्रधान पद लियेसों || धर्म को प्रकाश होय दुर्गति को नाश होय,
बरते समाधि ज्यों पियूष रस पिये सों । तोष परि पूर होय, दोष दृष्टि दूर होय,
एते गुन होहि सह संगति के किये सौं ||
कह रैदास मिलें निजदास, जनम जनम के काटे पास-रैदास वानी, पृ. 32 तज कुसंग सतसंग बैठ नित, हरि चर्चा सुरण लीजो-सम्तवारणी संग्रह, भाग 2, पृ. 77.
जलचर थलचर नभचर नाना, जे जड़ चेतन जीव जहाना | मीत कीरति गति भूति भलाई, जब जेहि जलन जहां जेहि पाई ।
सौ जानव सतसंग प्रभाऊ, लौकहुं वेद न आन उपाऊ । बिनु सतसंग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई । सतसंगति मुद मंगलमूला, सोई फल सिधि सब साधन फूला । सठ सुधरहि सतसंगति पाई, पारस परस कुधात सुहाई । तुलसीदास - रामचरितमानस, बालकाण्ड 2-5. तजो मन हरि विमुखन को संग ।
जिनके संग कुमति उपजत है परत भजन में मंग ।
कहा होत पय पान कराये विष नहि तजत भुजंग |
काहि कहा कपूर चुगाए स्वान म्हवाए गंग |
सूरदास खलकारी कामरि, चढ़े न दूजो रंग ॥ सूरसागर, पृ. 176. बनारसीविलास, भाषासुक्त मुक्तावली, पृ. 50.