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होती है। रूपचन्द का कहना है कि सद्गुरु की प्राप्ति बड़े सौभाग्य से होती है इस लिए वे उसकी प्राप्ति के लिए अपने इष्ट से अभ्यर्थना करते हैं। चानतराय को "जो तज विर्य की प्रासा, बानत पावं सिववासा । यह सद्गुरु सीख बताई, काहूं विरल के जिय जाई" के रूप में अपने सद्गुरु से पथदर्शन मिला । । सन्तों ने गुरु की महिमा को दो प्रकार से व्यक्त किया है- सामान्य गुरु का महत्व और किसी विशिष्ट व्यक्ति का महत्व । कबीर और नानक ने प्रथम प्रकार पलपनाया तथा सहजोबाई मादि अन्य सन्तों ने प्रथम प्रकार के साथ ही द्वितीय प्रकार को भी स्वीकार किया है । जैन सन्तों ने भी इन दोनों प्रकारों को अपनाया है। महत प्रादि सद्गुरुषों का तो महत्वगान प्रायः सभी जैनाचार्यों ने किया है पर कुश लाभ जैसे कुछ भक्तो ने अपने लोकिक गुरुषों की भी पाराधना की है।
। गुरु के इस महत्व को समझकर ही साधक कवियों ने गुरु के सत्संग को प्राप करने की भावना व्यक्त की है। परमात्मा से साक्षात्कार कराने वाला ही सदाह है । सत्संग का प्रभाव ऐसा होता है कि वह मजीठ के समान दूसरों को अपने रंग में रग लेता है। काग भी हस बन जाता है ।' रैदास के जन्म-जन्म के पाश कट
1. सतगुरू मिलिया सुछपिछानौ ऐसा ब्रह्म मैं पाती।
सगुरा सूरा अमृत पीवे निगुरा प्यासा जाती। मगन भया मेरा मन सुख में गोविन्द का गुण गाती । मीरा कहै इक पास मापकी और सू सकुचाती ॥ सन्त वाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 69. भब मौहि सद्गुरु कहि समझायो, तौ सौ प्रभू बड़े भागनि पायो। रूपचन्द नटु विनवै तौही, अब दयाल पूरी दे मोही ।।
हिन्दा पद संग्रह, पृ. 49 3., वही, पृ. 127, तुलनार्थ देखिये ।
मन वचकाय जोग थिर करके त्यागो विषय कषाई।
बानत स्वर्ग मोक्ष सुखदाई सतगुरु सीख बताई ॥ वही, पृ, 133. 4. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ. 117. 5. भाई कोई सतगुरु सत कहावै, नैनन मलख लखाव-कवीर; भक्ति काव्य में
रहस्यवाद, पृ. 146. 6. दरिया सगत साधु की, सहज पलटे अंग । -- जैसे सं गमजीठ के कपड़ा होय सुरंग । दरिया 8, संत वाणी संग्रह,
भाग 1, पृ. 129 7. सहजोसंगत साष की काग हंस हो जाय । महोबाई, वही, पृ. 158