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जाती और यदि मुण्डन करने से स्वर्ग मिलता तो भेड़ भी स्वर्ग पहुंचती सुन्दरदास, जगजीवन, भीखा मादि सन्तों ने भी इन बाह्याचारों का खण्डन किया है। तुलसी ने भी कहा कि, जप, तप, तीर्थस्नान प्रादि क्रियायें रामभक्ति के बिना वैसी ही है जैसे हाथी को बांधने के लिए घूल की रस्सी बनाना । अनेक देवताओं की सेवा, श्मशान में तान्त्रिक साधना, प्रयाग में शरीर त्याग प्रादि प्राचार अविद्याजन्य हैं 15
मध्यकालीन जैन सन्तों ने भी अपनी परम्परा के अनुसार बाह्याचारों का cause किया है। जैनधर्म में बिना विशुद्धमन और ज्ञानपूर्वक किया गया प्राचार कर्मबन्ध का कारण माना गया है ।" भैया भगवतीदास ने कबीरादि सन्तों के स्वर से मिलाकर बाह्य क्रियानों में व्यस्त साधुनों की तीखी आलोचना की है। " वृक्ष के मूल में रहना, जटादि धारण करना, तीर्थस्नानादि करना ज्ञान के बिना बेकार हैंकोटि कोटि कष्ट सहे, कष्ट में शरीर दहे,
धूमपान कियो पे न पायो भेद तन को । वृक्षन के मूल रहे जटान में भूलि रहे,
मान मध्य मूलि रहे किये कष्ट तन को ||
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कोरति के काज दियौ दानहू रतनको । ज्ञान बिना बेर-बैर क्रिया करी फेर-फेर,
कियौ कोऊ कारज न भ्रातम जतन को ॥ जैन कवि भगवतीदास ने ऐसी बाह्य क्रियानों का खण्डन किया है जिनमें सम्यक् ज्ञान और प्राचार का समन्वय न हो
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तीरथ अनेक न्हये, तिरत न कहूं भये,
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नागे फिरें जोग जो होई, बन का मृग मुकति गया कोई । मूड़ मुड़ायें जो सिधि होई, स्वर्ग ही भेड़ न पहुंची कोई ॥
नन्द राखि जे खेल है भाई, तो दुसरे कोण परम गति पाई ||13211
कबीर ग्रन्थावली, पृ. 23.
सुन्दर विलास, पृ. 23.
संत सुधासार, भाग - 2, पृ. 58.
भीखा साहब की वानी, पृ. 5. fareafter, पद 129.
तुलसी ग्रन्थावली, पृ. 200.
नाटक समयसार, सर्वविशुद्धि द्वार, 96-97.
ब्रह्मविलास, शतप्रष्टोत्तरी, 11 पृ. 10 वही; मनित्यपचीसिया, 9 पृ. 174.