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पहुंच जाना तया चिदानन्द चैतन्य रस का पान करना साधक का मूल उद्देश्य रहता है। इसलिए रहस्यवाद का प्रस्थान बिन्दु संसार है जहां प्रात्याक्षिक और पत्रात्याक्षिक सुख-दुःख का अनुभव होता है और परम विशुद्धावस्था रूप को प्राप्त करता है। वहां पहुंचकर सापक कृतकृत्य हो जाता है। और उसका भवचक्र सदैव के लिए समाप्त हो जाता है। इस अवस्था की प्राप्ति का मार्ग अत्यन्त रहस्य अथवा गुह्य है इसलिए साधक में विषय के प्रति जिज्ञासा और प्रौत्सुक्य जितना अधिक जामृत (जागरित) होगा उतना ही उसका साध्य समीप होता चला जायगा।
रहस्य को समझने और अनुभूति में लाने के लिए निम्नलिखित प्रमुख तत्वों का भाषार लिया जा सकता है
1. निज्ञासा और प्रौत्सुक्य । 2. संसारचक्र में भ्रमण करने वाले आत्मा का स्वरूप । 3. संसार का स्वरूप । 4. संसार से मुक्त होने का उपाय (भेद विज्ञान) । 5. मुक्त अवस्था की परिकल्पना (निर्वाण)। इन्हीं तत्त्वों पर प्रस्तुत प्रबन्ध में आगे विचार किया जायेगा।
रहस्यभावना का साध्य, साधन और साधक रहस्यभावना का प्रमुख साध्य परमात्मपद की प्राप्ति करना है जिसके मूल साधन हैं—स्वानुभूति और भेदविज्ञान । किसी विषय वस्तु का जब किसी प्रकार से साक्षात्कार हो जाता है तब साधक के अन्तरंग में तद्विषयक विशिष्ट अनुभूति जागरित हो जाती है। साधना की सुप्तावस्था में चराचर जगत साधक को यथावत् दिखाई देता है । उसके प्रति उसके मन मे मोह गर्मित पाकर्षण भी बना रहता है। पर साधक के मन में जब रहस्य की यह गुत्थि समझ में आ जाती है कि संसार का प्रत्येक पदार्थ प्रशाश्वत है, क्षणभंगुर है और यह सत्-चित् रूप प्रात्मा उस पदार्थ से पृथक् है, ये कभी हमारे नहीं हो सकते और न हम कभी इन पदार्थों के हो सकते हैं तब उसके मन में एक अपूर्व प्रानन्दाभूति होती है। इसे हम जैन शास्त्रीय परिभाषा में 'भेदविज्ञान' कह सकते हैं । साधक को भेदविज्ञान की यथार्थ अनुभूति हो जाना ही रहस्यवादी साधना का साध्य कहा जा सकता है। विश्व सत्य का समुचित प्रकाशन इसी अवस्था में हो पाता है। भेदविज्ञान की प्रतीति कालान्तर में दृढ़तर होती चली जाती है और प्रात्मा भी उसी रूप में परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इस अवस्था में पहुंचकर साधक अनिर्वचनीय अनुभूति का मास्वादन करता है। पात्मा की यह अवस्था शाश्वत और पिस्तन सुखद होती है।