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सिधान्त को रहस्यवाद कहा गया है। इसमें साधना प्रधान है और अनुसूति वा साक्षात्कार की यजमा गमित है।
रहस्यवार को परिभाषा वाद शब्द की निष्पत्ति वद् धातु+धा प्रत्यय = क् +भ से हुई है। जिसका अर्थ कथन होता है । उत्तरकाल में इसका प्रयोग सिद्धान्त और विचारधारा के संदर्भ में होने लगा। भारम्भवाद, परिणामवाद, विवर्तवाद, अनेकान्तबार, विमानबाद मायावाद मादि ऐसे ही प्रयोग हैं। जहां वाद होता है, यहां विवाद की श्रृंखला तयार हो जाती है । प्रात्मसाक्षात्कार की भावना से की गई योम-साधना के साथ भी याद बुला भोर रहस्य बाद की परिभाषा में अनेक रूपता बायी । इसलिए साहित्यकारों ने रहस्य भावना को कहीं दर्शम पदक माना और कही साधनापरक, कहीं भावात्मक (प्रेमप्रधान) तो कहीं प्रकृतिकमूलक, कहीं योगिक तो कही अभिव्यक्तिमूलक । परिभाषामों का यह वैविध्य साधकों की रहस्यानुभूति की विविधता पर ही आधारित रहा है। इतना ही नहीं, कुछ विद्वानों ने तो रहस्य भावना का सम्बन्ध चेतना, संवेदन, मनोवृत्ति और चमत्कारिता से भी जोड़ने का प्रयत्न किया है। इसलिए माजतक रहस्यवाद को परिभाषा सर्वसम्मत नहीं हो सकी। रहस्यवाद की कतिपय परिभाषायें इस प्रकार हैंभारतीय विद्वानों की दृष्टि में रहस्यवाकः--
डॉ० एस. राधाकृष्णन ने सर्म, अध्यात्म पोर रहस्यवाद के बीच सम्बन्ध बनाते हुए लिखा है कि प्रत्येक धर्मों में बाह्य विधि-निषेषों का प्रावधान रहता है जबकि आध्यात्मिकता सर्वोच्च सत्ता को समझाने और उससे तादात्म्य स्थापित करने तथा जीवन के सर्वांगीण विकास की ओर संकेत करती है। माध्यात्मिकता धर्म और और उसके अन्तर्गत निहित तत्व का सार है और रहस्यवाद में धर्म के इसी पक्ष पर बल दिया गया है।
डॉ. महेन्द्रनाथ सरकार ने रहस्यवाद की परिभाषा को दार्शनिक रूप देते हुए कहा है कि रहस्यवाद सत्य एवं वास्तविक तथ्य तक पहुंचने का एक ऐसा माध्यम है जिसे निषेधात्मक रूप में तर्कशून्य कहा जा सकता है। परन्तु डॉ. राधाकमल मुकर्जी ने रहस्यवाद को कला बताते हुए कहा है कि वह एक ऐसा साधन है जिससे साधक मन्तःयोग द्वारा संसार को प्रखण्ड रूप में अनुभव करता है। वासुदेव जग.
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Eastero Religion and Western Thoughts, P. 61 Mysticism in Bhaguad Gita, Calcutta, 1944 P. 1. Preface, Mysticism : Theory and Art, P. 12.