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रूप वाणी को सुनो। मर्मी व्यक्ति हो मर्म को जान पाता है । गुरु की वाणी को ही उन्होंने कहा और उसकी ही शुभधर्म प्रकाशक, पापविनाशक, कुपयभेदक, वृष्urates प्रादि रूप से स्तुति की 12 जिस प्रकार से अंजन रूप औषधि के लगाने से तिमिर रोग नष्ट हो जाते हैं वैसे ही सद्गुरु के उपदेश से संशयादि दोष विनष्ट हो जाते हैं। शिव पच्चीसी में गुरु वाणी को 'जलहरी' कहा है। * उसे सुमति और शारदा कहकर कवि ने सुमति देव्यष्टोत्तर शतनाम तथा शारदाष्टक लिखा है जिनमें गुरुवाणी को 'सुधाधर्म संसाधनी धर्मशाला, सुघातापनि नाशनी मेघमाला | महामोह विध्वंसनी मोक्षदानी' कहकर 'नमोदेवि वागेश्वरी जैनवानी' प्रादि रूप से स्तुति की है 15 केवलज्ञानी सद्गुरु के हृदय रूप सरोवर से नदी रूप जिनवाणी निकलकर शास्त्र रूप समुद्र में प्रविष्ट हो गई। इसलिए वह सत्य स्वरूप और धनन्तनयात्मक है । कवि ने उसकी मेघ से उपमा देकर सम्पूर्ण जगत के लिए हितकारिणी माना है ।" उसे सम्यग्दृष्टि समझते है और मिथ्यादृष्टि नहीं समझ पाते । इस तथ्य को कवि ने अनेक प्रकार से समझाया है । जिस प्रकार निर्वाण साध्य है और अरहंत, श्रावक, साधु, सम्यक्त्व श्रादि अवस्थायें साधक है, इनमें प्रत्यक्ष-परोक्ष का भेद है । ये सब अवस्थायें एक जीव की हैं ऐसा जानने वाला ही सम्यग्दृष्टि होता है । "
सहजकीर्ति गुरु के दर्शन को परमानददायी मानते हैं - 'दरशन नधिक प्राणंद जंगम सुर तरुकद ।' उनके गुण अवर्णनीय हैं- 'वरणवी हूं नवि स 19 जगतराम ध्यानस्थ होकर अलख निरंजन को जगाने वाले सद्गुरु पर बलिहारी हो जाता है 10 और फिर सद्गुरु के प्रति 'ता जोगी चित लावो मोरे बालो' कहकर
1.
हिन्दी पद संग्रह, रूपचन्द, पृ. 48.
2. बनारसी विलास, भाषा मुक्तावली, पृ. 20, पृ. 27.
3.
वही, ज्ञानपच्चीसी, 13, पृ. 148.
4.
वही, शिवपच्चीसी, 6, पृ. 150.
5. वही, शारदाष्टक, 3, पृ. 166.
6.
नाटक समयसार, जीवद्वार, 3.
7. त्यावर वरषा समै, मेध प्रखंडित धार ।
त्यौं सद्गुरु वानी खिरे, जगत जीव हितकार | वही सत्यसाधक द्वार, 6, पृ. 338.
8. नाटक समयसार, 16, पृ. 38.
9. जिनराजसूरी गीत, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, 2, 7, पृ. 174-176. तेरहपंथी मंदिर जयपुर, पद संग्रह, 946, पत्र 63-64.
10.