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सन्तों ने सहज के स्वरूप को बिल्कुल बदल दिया । 'सन्त कवियों तक घातेमाते सहज की मिथुन परक व्याख्या का लोप होने लगता है और युग के स्वाधीनचेता कबीर सहज को समस्त मतवादों की सीमाओं से परे परम तत्व के रूप में मनुष्य की सहज स्वाभाविक अनुभूति मानते है जिसकी प्राप्ति एक सहज सन्तुलित जीवनचर्या द्वारा ही सम्भव है । इसके लिए साधक को किसी भी प्रकार का श्रम नहीं करना पड़ता, वरन् सारी साधना स्वयमेव सम्पन्न होतो चलती है -- सहजे होय सो होय ।' सहज साधक प्रथक विश्वास और एकान्तनिष्ठा के साथ सहज साधना करता है और 'सवद' को समझकर ही ग्रात्म तत्व को प्राप्त करने में ही समर्थ होता है
नानक ने सहज स्वभाव को स्वीकार कर उसे एक सहज हाट की कल्पना
दी है जिसमें मन सहजभाव से स्थिर रहता है । दादू ने यम-नियमों के माध्यम से मन की द्वैतता दूर होने पर सम स्वभाव की प्राप्ति बताई है । यही समरसता है। और इसी से पूर्ण ब्रह्म की प्राप्ति होती है । यम नियमों की साधना अन्य निर्गुणी सन्तों ने भी की है । सुन्दरदास और मलूकदास इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं ।" सूर
सन्तो देखत जग बौराना ।
सच कहीं तो मारन घावं, झूठहि जग पतियाना । नेमि देखा घरमी देखा, प्रात करहि श्रमनाना । श्रतम मारि पपानहि पूर्जाह उनिमह किछउ न ज्ञाना ॥ हिन्दू कहहिं मोहि राम पियारा, तुरुक कहहि रहिमाना । प्रास में दोउ लरि मुये, मरम न कोई जाना || कहहि कबीर सुनहु हो सन्तो, ई सम भरम भुलाना | केतिक कहीं कहा नहि मानें, सहजै सहज समाना ॥
1. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 269, मध्यकालीन हिन्दी संत- विचार भौर साधना, पृ. 531.
बीजक, पृष्ठ 116, मध्यकालीन संत विचार और साधना, पृ. 531.
सहज हाटि मन कीमा निवासु सहज सुभाव मनि कीग्रा परगासु-प्रारण
संगली, पृ. 147.
सहज रूप मन का भया, जब द्वे द्वे मिटी तरंग |
ताला सीतल सम भया, तब दादू एक प्ररंग ॥ दादूदयाल की वानी, भाग 1, T. 170.
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वही, भाग-2, पृ. 88.
6. सुन्दरदर्शन - डॉ. त्रिलोकी नारायण दीक्षित, पृ. 29-50.
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