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(VI)
कि वह स्वयं परमात्मा बन जाता है। तब जीव और ब्रह्म में किषित भी अन्तर नहीं रहता । इस दृष्टि से जितने भी
जीव का बम हो जाना संभाग है। शर्त है केवल अपने को निर्मल, विधुर पार निर्विकार-वीतराग बनाना।
जैन दर्शन के श्वर विषयक इस भिन्न दृष्टिकोण कारण मालोचकों में बन रहस्यवाद को लेकर मत-वभिन्य रहा है और उसे शंका की दृष्टि से देखा है। पर मुझे यह कहते हुए मस्यन्त प्रसन्नता है कि डा. बीमती पुष्पलता जैन ने इस खतरे को उठाकर अपने इस शोष-प्रबन्ध 'मध्यकालीन हिन्दी बैन काम में रहस्य. भावना' में विभिन्न शंकाओं का सुकर समाधान प्रस्तुत किया है दानिक स्तर पर भी और साहित्यिक स्तर पर भी ।
श्रीमती पुष्पलता जैन का अध्ययन विस्तृत पौर बहरा है। उन्होंने व्यापक फलक पर रहस्य-चिन्तन पोर रहस्म-भावना का विवेचन-विश्लेषण किया है। पाठ परिवों में विभाजित अपने भोप-प्रबध में जहां एक मोर उन्होंने हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन, उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, मादिकालीन एवं मध्यकालीन जैन काव्य प्रवृत्तियों पर प्रकाश डाला है वहीं दूसरी पोर रहस्यभावना के स्वस्म, उसके बाधक एवं साधक तत्वों का विवेचन करते हुए जैन रहस्यभावना का सगुण, निर्गुण, सूफी व माधुनिक रहस्यभावना के साथ तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। उनका अध्ययन पालोचना एवं गवेषणा से संयुक्त है। शताधिक जैन-नेतर कवियों की रचनामों का पालोड़न-विलोड़नकर उन्होंने अपने जो निष्कर्ष दिये है ये प्रमाणपुरस्सर होने के साथ-साथ नवीन दृष्टि और चिन्तन लिये हुए हैं।
मुझे पूरा विश्वास है कि यह कृति हिन्दी काव्य की रहस्यधारा को समय रूप से समझने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगी।
23 अप्रैल, 1984
डॉ. नरेन्द्र मानावत एसोसियेट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविदालय, जयपुर