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प्रारम्भिक हिन्दी प्रौर उत्तरकालीन हिन्दी पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा हुआ है। हिन्दी का ढांचा अपभ्रंश की देन है। हिन्दी का परसगँ प्रयोग, निर्विभक्तिक रूपों की बहुलता, कर्मवाच्य तथा भाववाच्य प्रणाली के बीज अपभ्रंश में ही देखे जाते हैं । परवर्ती प्रपभ्रंश में स्थानीय भाषिक तत्व बढ़ते गये और लगभग तेरहवीं शती तक भाते भाते पूर्व-पश्चिम देशवर्ती बोलियां स्वतन्त्र रूप से खड़ी हो गई । गुजराती, मराठी, बंगला, राजस्थानी, ब्रज, मैथिली भादि क्षेत्रीय भाषाएँ इसी का परिणाम है। डॉ. नामवरसिंह ने इन भाषाओं के विकास में अपभ्रंश के योगदान 'की' पर्चा की है। उनके अनुसार यह योगदान निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है, विशेषत: मध्यकालीन हिन्दी के क्षेत्र में ।
1.
निविभक्ति पदों का उपयोग ।
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4. हिन्ह विभक्ति का प्रयोग सामान्यतः कर्म, सम्प्रदान, करण, प्रधिकरण प्रो सम्बन्ध कारको में ।
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6.
उ विभक्ति का प्रयोग जिसका खड़ी बोली में लोप हो गया ।
करण, अधिकरण के साथ ही कर्म, सम्प्रदान और प्रपादान में भी हि-हि विभक्ति का प्रयोग ।
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परसर्गों में सम्बन्ध कारक केरल, केर, कर, का, की, अधिकरण कारक मज्झे, मज्भु, माँझ, सम्प्रदान कारक केहि रेसि, तरण प्रमुख हैं । प्रयत्न लाघव प्रवृत्ति के कारण इन परसर्गों में घिसाव भी हुआ है ।
सार्वनामिक विशेषण -- जइसो, तइसो, कइसो, प्रइसो. एहउ । क्रमवाचक --- पढम, पहिल, बिय, दूज, तीज श्रादि । क्रिया - संहिति से व्यवहिति की प्रोर बढ़ी । तिङन्ततद्भव - पछि, भाछं, अहै-है; हुतो हो, था ।
11.
सामान्य वर्तमान काल --- ऐ (करें), ए (करे), श्रौं (बंदों) रूप । 12. सामान्य भविष्यत काल --- करिसइ, करिसहुँ, करिहर, करिहउँ आदि । वर्तमान प्राशार्थ -- सुमरि, बिलम्बु, करे जैसे रूप ।
13.
कृदन्त-तद्भव - करत, गयउ, कीनो, कियो आदि जैसे रूप | अव्यय - माज, प्रबर्हि, जांब, कहें, जहॅ, नाहि, लौं, जइ भादि ।
सर्वनाम हऊँ पोर हो ( उत्तम पु. एकव . ) हम (उ.पु. बहुव), मो श्रीर मोहि, मुझ-मुज्भु (सम्प्रदान), तुहुँ - तुतं- तू-तू-तई तै, तुम्ह तुम ( उत्तमपु.) तब-तो-तोहि-तोर तुम्भ (सम्बन्ध), मो-प्रो मोहु ( अन्य पु.), अप्पण -प्रापन, ary (fararas), एह-यह-ये- इस-इन ( निकट नि-स.), जो ( सम्बन्ध वाचक), काई - कवरण - कौन ( प्रश्न.), कोउ, कोक, (अति.) ।
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