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प्राराध्य के रंग में रंगने लगता है। तद्प हो जाने पर उसका दुविधाभाव समाप्त हो जाता है और समरस भाव का प्रादुर्भाव हो जाता है । यहीं सांसारिक दुःखों से अस्त-जीव शाश्वत की प्राप्ति कर लेता है।
निर्गुण सन्तों ने भी प्रपत्ति का प्रांचाल नहीं छोड़ा । वे भी 'हरि न मिल बिन हिरदै सूध जैसा अनुभव करते हैं और दृढ़ विश्वास के साथ कहते हैं'अब मोही राम भरोसों-तेरा, और कौन का करौ निहोरा' 12 कबीर और तुलसी आदि सगुण भक्तों के समान द्यानतराय को भगवान मे पूर्ण विश्वास है'अब हम नेमि जी को शरण पोर ठौर न मन लगता है, छाडि प्रभ के शरन' इस प्रकार प्रपत्त भावना मध्यकालीन हिन्दी जैन और जेनेतर काव्य मे समान रूप से प्रवाहित होती रही है । उपालम्भ, पश्चात्ताप, लघुता, समता और एकता जैसे तत्व उनकी भाव भक्ति ये यथावत् उपलब्ध होते है।
मध्यकाल मे सहज योगसाधना की प्रवृत्ति सतो मे देखने को मिलती है। इस प्रवृत्ति को सूत्र मानकर द्यानतराय न भी आत्मज्ञान को प्रमुखता दी। उनको उज्जवल दर्पण के समान निरजन आत्मा का उद्योग दिखाई देता है। वही निविकल्प शुद्धात्मा चिदानन्दरूप परमात्मा है जो सहज-साधना के द्वारा प्राप्त हुमा है इसीलिए कवि कह उठता हे "देखो भाई प्रातमराम बिराजै ।। साधक अवस्था के प्राप्त करने के बाद साधक मे मन में दृढ़ता मा जाती हे और वह कह उठता है
प्रब हम अमर भय न मरेगे। माध्यात्मिक साधना करने वाले जैन जनेतर सतो एवं कवियों ने दाम्पत्यमूलक रति भाव का अवलम्बन परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए लिया है। इसी सदर्भ में माध्यात्मिक विवाहो और होलियो की भी सर्जना हुई है। द्यानतराय ने भी ऐसी ही प्राध्यात्मिक होलियों का सरस चित्रण प्रस्तुत किया है । वे सहज बसन्त आने पर होली खेलने का आह्वान करते हैं। दो दल एक दूसरे के सामने खड़े है । एक दल में बुद्धि, दया, भमारूप नारी वर्ग खड़ा हुमा है और दूसरे दल मे रत्नत्रयादि गुणों से सजा प्रात्मा पुरुष वर्ग है । ज्ञान, ध्यान
1. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 214 2. वही, पृ. 124 3. हिन्दी पद संग्रह, 140 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 114 5. वही, पृ. 114