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सपहफ साल मादि वाद्य बजते हैं, धनघोर अनहद नाद होता है, धर्म रूपी लाल वर्ण का गुलाल उड़ता है, समता का रंग घोल लिया जाता हैं, प्रश्नोसर की तरह पिचकारियां चलती हैं। एक अोर से प्रश्न होता है कि तुम किसकी नारी हो, तो नसरी मोर से प्रश्न होता है, तुम किसके लड़के हो । बाद में होली के रूप में अष्टकर्मरूप ईधन को अनुभवरूप अग्नि में जला देते हैं और फलतः पारों मोर शान्ति हो जाती है । इसी शिवानन्द को प्राप्त करने के लिए कवि ने प्रेरित किया है
प्रायो सहज बसन्त, खेलै सब होरी होरा ॥ इत बुद्धि दया छिपा बहुगढी, इत जिय रतन सजै गुन जौरा ।। ज्ञान ध्यान डफ ताल बजत हैं, अनहद शब्द होत घन धोरा ॥ धरम सुराग गुलाल उड़त है,
समता रग दुह मे घोरा ॥....... इसी प्रकार चेतन से समतारूप प्राणप्रिया के साथ “छिमा बसन्त" में होली खेलने का आग्रह करते है। प्रेम के पानी में करुणा की केसर घोलकर ज्ञान
शान की पिचकारी से होली खेलते है। उस समय गुरु के वचन की मृदंग है, निश्चय व्यवहार नय ही ताल है, सयम ही इत्र है, विमल व्रत ही चोला है, भाव ही गुलाल है जिसे अपनी झोरी में भर लेते हैं, धरम ही मिठाई है, तप ही मेवा है. समरस से मानन्दित होकर दोनो होली खेलते हैं। ऐसे ही चेतन और समता की जोड़ी चिरकाल तक बनी रहे, यह भावना सुमति प्रपनी सखियो से अभिव्यक्त करती है
चेतन खेलौ होरी ।। सत्ता भूमि छिपा बसन्त में, समता-पान प्रिया सग गौरी ॥ मन को मार प्रेम को पानी, तामें करूना केसर घोरी। ज्ञान ध्यान पिचकारी भरि भरि, आप मे छार होरा होरी ।। गुरु के वचन मृदंग बजत हैं, नय दोनों डफ ताल ठकोरी ।। संजय प्रतर विमल व्रत चौला भाव गुलाल भर भर झोरी ।। घरम मिठाई तप बहुमेवा, समरस मानन्द अमल कटौरी ।।
धानत सुमति सह सखियन सों, चिरजीवो यह जुग जुग जोरी ।।
सन्तों ने परमात्मा के साथ भावनात्मक मिलन करने के लिए माध्यात्मिक विवाह किया, मंगलाचार भी हुए और उसके वियोग से सन्तप्त भी हुए। बनारसीदास ने भी परमात्मा की स्थिति में पहुंचाने के लिए आध्यात्मिक विवाह, वियोग
1. बही, पृ. 119 2. हिन्दी पदसंग्रह, पृ. 121